मित्रों "जीवन-दर्शन" के इस सफर में आपका हार्दिक स्वागत हैं। अपने जीवन के आज तक के सफ़र में मैंने जो दर्शन किया हैं, जो समझा हैं, जिस सत्य को पहचाना हैं, वो आप भी जाने ऐसा एक प्रयास है मेरा। मित्रों पेशे से मैं एक व्यापारी हूँ, पर बचपन से ही खोजी प्रवर्ति का रहा हूँ। ईश्वर के नियमों और सिद्धांतो को समझने के लिये मैंने धार्मिक ग्रंथो के साथ-साथ भूत-भविष्य को जानने वाले हस्त-रेखा, ज्योतिष शास्त्र इत्यादि और इनसे सम्बंधित विषयों का भी अध्ययन किया हैं। पर फिर भी मुझे इनसे कोई संतुष्टि नही मिली। ज्योतिष विज्ञान के द्वारा सब-कुछ जानने के बाद भी एक अधूरा सा पन महसूस होता था। ऐसे में सत्य की खोज करते-करते ध्यान और दर्शन-शास्त्र से जुड़ गया। यहाँ मैंने ईश्वर के अनेक नियमों को जाना, पर फिर भी जब तक उसको ना पा लूँ तब तक अधूरा ही हूँ।
मित्रों सत्य की खोज और "जीवन" के वास्तविक स्वरुप को समझने की कला ही "दर्शन" हैं। जो व्यक्ति ज्ञान को प्राप्त करने तथा नई-नई बातों और रहस्यों को जानने में रूचि रखता हैं, और फिर भी उसकी जिज्ञासा शांत नही होती, वो दार्शनिक कहलाता हैं। दर्शन का आरम्भ जिज्ञासा से होता हैं। बिना ईच्छा या जिज्ञासा के ज्ञान संभव नहीं। जीवन क्या हैं, आत्मा क्या हैं, परमात्मा क्या हैं, जीवन का आदि अंत सत्य क्या हैं? यही दर्शन का विषय हैं।
राधे-राधे...

21 मार्च 2015

कथा कहानियें, और कुछ नही बस हमारे भावों में श्रेष्ठता लाने का मात्र एक प्रयोजन हैं।


मित्रों कथा कहानियें और कुछ नही बस हमारे भावों में श्रेष्ठता लाने का मात्र एक प्रयोजन हैं। पर आज  के फैशन अटेक के चलते इन कथा-कहानियों का प्रचलन कम होता जा रहा है, और टेलीविजन की कथा कहानियों का प्रभाव बढ़ता जा रहा हैं। जिसके दुष्परिणाम भी आज हम देख रहे हैं।

पर आखिर इन कथा-कहानियों के पीछे क्या विज्ञान काम कर रहा हैं ये किसी को पता नहीं। आइये मित्रों कुछ मंथन करते हैं कि क्या रहस्य छुपा हैं इस परम्परा के पीछे।

मित्रों इन कहानियों और कथाओं के पीछे बहुत बड़ा विज्ञान छुपा हैं। पुराने जमाने में हम देखते थे कि जब तीज-त्यौहार होते थे तब सुहागिन औरतों को कहानी सुनाकर उस त्योंहार का माहत्म यानी अर्थ बताया जाता था। और यह भी कहा जाता कि कथा का माहत्म्य सुनने से फल दुगना मिलेगा। मित्रों कहानी सुनाने के पीछे एक ही विज्ञान छुपा हैं कि उनके मन में अच्छा भाव पैदा करना। मित्रों बिना अच्छे भाव के आप कितने भी व्रत करलो उत्तम फल को नही पा सकते। कथा सुनने से उस व्रत के प्रति उत्तम भाव पैदा होता है और व्रत तो मात्र एक कर्म बनता हैं भाव के फल तक पहुँचने का। मित्रों अगर व्रत करने से कोई सुखी हो सकता या धनवान हो सकता तो आज भिखारी बेचारे दर-दर की ठोकरे खाते नही फिरते।

मित्रों यों आप कितना भी शनि भगवान् के तेल चढ़ालो या किसी भी ग्रह नक्षत्र के लिये दान या पूजा-पाठ करवा लो मन्त्र इत्यादि के भी लाखों जाप करलो या कोई व्रत इत्यादि भी करलो, कोई भी फायदा नही होगा। ये सब करके आप सामान्य से ज्यादा परिणाम नही पा सकते। पर जब आपने उस दान, व्रत या पूजा-पाठ या मंत्र इत्यादि के अर्थ को समझ लिया तो आपके मन में उस कर्म के प्रति श्रेष्ठ भाव पैदा होगा जिससे श्रेष्ठ परिणामों की प्राप्ति होगी।

मित्रों में अगर आपको गाली बोलूँगा तो क्या होगा ?
आपको गुस्सा आयेगा ना।
पर अगर में एक छोटे बच्चे को गाली बोलूं, तो क्या उसे गुस्सा आयेगा ? नही आयेगा ना। क्योंकि वो बच्चा उस शब्द का अर्थ नही समझता।
अब आपमें गाली सुनते ही एक ऊर्जा का संचार होकर क्रोध उत्पन्न होता हैं, क्योंकि आप गाली का अर्थ समझते हैं। पर बच्चा गाली का अर्थ नही समझता इसलिए उसमे किसी भी प्रकार की ऊर्जा का संचार नही होता और कोई परिणाम या प्रतिक्रिया भी नही आती।

वैसे ही किसी शब्द या कर्म का जैसा ज्ञान आपको होगा वैसी हीं ऊर्जा उत्पन्न होगी, अन्यथा नहीं।

बस मित्रों भाव वाला यही विज्ञान संसार के सभी कर्मो में काम करता हैं। अगर किसी वस्तु के दान का जैसा अर्थ आपको पता हैं तो आपका भाव वैसा ही बन जाएगा और उसी अर्थ से जो भाव बनेगा फिर दान करने के बार वैसा ही फल प्राप्त होगा। इसलिये मित्रों संसार में आप जब भी कोई कर्म करो तो उससे पहले उसके भाव को अच्छा करो, उसके अर्थ को समझों।

मित्रों में अक्सर कहता हूँ की हमें कर्मो का फल नही बल्कि भावों का फल मिलता हैं। जैसा भाव होगा वैसा फल मिलेगा। कर्म तो मात्र एक साधन होता है फल तक पहुँचने का।

इसलिये मित्रों ये कथा-कहानिये या सुविचार और कुछ नही आपके मन के भावों को बदलने का मात्र एक प्रयोजन हैं।

राधे-राधे...

ना तो मंदिर में भगवान् होते हैं, और ना ही मूर्ती में भगवान् होते हैं। फिर भी दोस्तों सत्य ये हैं कि... मंदिर जाने से कल्याण होता हैं। मंदिर की फैरी लगाने से कल्याण होता हैं। मंदिर में पैसा चढाने से कल्याण होता हैं। माता के चुनरी चढाने से कल्याण होता हैं।


ना तो मंदिर में भगवान् होते हैं,
और ना ही मूर्ती में भगवान् होते हैं।

फिर भी दोस्तों सत्य ये हैं कि...
मंदिर जाने से कल्याण होता हैं।
मंदिर की फैरी लगाने से कल्याण होता हैं।
मंदिर में पैसा चढाने से कल्याण होता हैं।
माता के चुनरी चढाने से कल्याण होता हैं।

आइये दोस्तों मंदिर इत्यादि जाने से कैसे कल्याण होता हैं इसके पीछे छुपे विज्ञान को समझने का प्रयास करते हैं।

मित्रों अपनी भाषा में सीधे-साधे शब्दों में कहूँ तो "भगवान्" ना तो मंदिर में होता हैं और ना ही मूर्ती में होता हैं। भगवान् तो आपके मन में होता हैं। पर "मन" ही भगवान् होता हैं, इस सत्य को हम लोग मान नही पाते इसलिये मूर्ती या मंदिर का सहारा लेकर उसमे भगवान् देखते हैं।

मित्रों आप ये ना समझें की मैं कोई नास्तिक व्यक्ति हूँ। हालाँकि मैं जानता हूँ की भगवान् ना तो मंदिर में हैं और ना ही भगवान् मूर्ती में हैं, फिर भी ईश्वर की कृपा पाने के लिए मैं स्वयं मंदिर में जाता हूँ। आप सोच रहे होंगे कि भय्या पगला गये हैं, एक तरफ तो कहते हैं कि भगवान् ना तो मंदिर में हैं और ना ही मूर्ती में, और दूसरी तरफ कहते हैं कि मैं खुद ईश्वर की कृपा पाने मंदिर में जाता हूँ।

दोस्तों यह रहस्य बड़ा ही पेचीदा हैं। और संसार में आज तक बहुत कम लोग हैं जो इस Philosophy को समझ पायें हैं।

चलो ये बताओ की एक पत्थर की मूर्ती को भगवान् मानने वाला कौन हैं ? आपका मन... आपके ही ने उसे भगवान् माना ना। तो जिस मन ने एक पत्थर की मूर्ती को भगवान माना और पत्थर भगवान् हो गया, तो अब सोचो इस ईश्वर का चुनाव करने की शक्ति जिस मन के पास हैं वो मन खुद कितना शक्तिशाली होगा।

मित्रों अपने लेखों में मैं बार-बार कहता रहता हूँ कि यह "मन" ऊर्जावान हैं, और इसका "ध्यान" जिस भाव के साथ जिस विषय या वस्तु पर होता हैं, वैसी ही ऊर्जा का प्रवाह उधर होने लगता हैं। जैसे आपकी आस्था और विश्वास किसी भगवान् में या किसी भगवान् की मूर्ती में हैं, तो आपके मन की "ऊर्जा" का वैसा ही प्रवाह उस मूर्ती की और हो जायेगा कि ये मूर्ती भगवान् हैं। और ऐसे में मात्र आपका ही मन नहीं, बल्कि उस मंदिर में आस्था रखने वाले हजारों लोगों के मन की ऊर्जा का वैसा ही प्रवाह उस मूर्ती की और होता हैं। और उस मूर्ती पर लोगों के इसी ध्यान की वजह से उस मूर्ती के चारों और एक शक्तिशाली सकारत्मक चुम्बकीय क्षेत्र(Positive Magnetic Fild) यानी आभामंडल का विकास हो जाता हैं। और जितने अधिक लोगों का ध्यान उस मूर्ती पर होता हैं मूर्ती का आभामंडल उतना ही विशाल होता हैं।

अब इसके चलते अगर कोई व्यक्ति अपने पूर्ण विश्वास, आस्था और के साथ मन की गहराई से उसके प्रति समर्पित होकर चुनरी या पैसे इत्यादि चढ़ाता हैं, मंदिर जाता हैं या हाथ भी जोड़ता है तो उस व्यक्ति का आभामंडल, उस मूर्ती के आभामंडल से कनेक्ट हो जाता हैं। और हजारों लोगों के मन की ऊर्जा से पोषित उस मूर्ती के सकारात्मक आभामंडल से जुड़ने से उस व्यक्ति के स्वयं के आभामंडल का विस्तार होने लगता हैं। जिसका सीधा प्रभाव मस्तिष्क पर पड़ता हैं और इसके चलते मस्तिष्क में विचारों का परिवर्तन शुरू हो जाता हैं। और व्यक्ति अपने इन्ही बदले हुए विचारों की दिशा के कारण योग्य कर्म का चुनाव कर शुभ फल या श्रेष्ठ परिणामों को प्राप्त करता हैं।

मित्रों ऐसे में हर आदमी ये सोचता हैं कि फलां मंदिर या मूर्ती में चमत्कार हैं। अरे भाई चमत्कार तो आपके मन में हैं मूर्ती में नही। यानी भगवान् तो आपके मन में हैं मूर्ती में नही।
तो मूर्ती में शक्ति आई कहाँ से ?
हजारों लोगों के मन के सकारात्मक "ध्यान" से।

दोस्तों शक्ति मूर्ती में नही बल्कि शक्ति तो आपके मन के ध्यान में होती हैं। अगर मूर्ती में शक्ति होती तो आज हर चौराहे पर खड़ी किसी नेता इत्यादि की मूर्ती से भी कोई न कोई चमत्कार निकल रहा होता।

एक बात और बताता हूँ कि देखो एक साधारण से फ़क़ीर का जीवन जी वाले "साईं-बाबा" को भी लोगो के मन की ऊर्जा ने भगवान् बना दिया। पर क्या "साईं-बाबा" भगवान् थे ? अरे साईं-बाबा ही क्या... भगवान् तो मैं और आप भी हैं। पर संसार के विषयों के विष में फंसे होने के कारण हम लोग अपनी भगवद्ता खो बैठे हैं।

बस मित्रों संसार में सब कुछ विज्ञान के नियमों पर चल रहा हैं। पर जब तक उसके पीछे छुपे विज्ञान का हमे ज्ञान नही तब तक वो चमत्कार ही होता हैं।

राधे-राधे...

सही रत्न और और योग्य पात्र को दिया गया दान आपके जीवन में सुख ला सकता हैं।


सही रत्न और और योग्य पात्र को दिया गया दान आपके जीवन में सुख ला सकता हैं।

मित्रों व्यक्ति की जन्मपत्री में बैठे ग्रह अपना अपना प्रभाव छोड़ते ही हैं। कुछ ग्रह शुभ फलदाता होते हैं तो कुछ अशुभ फलदाता होते हैं। मान्यता के अनुसार कोई भी ग्रह कुंडली में शुभ फलदाता हो तो रत्न धारण कर उस ग्रह की मिलने वाली रश्मियों को बढ़ा दिया जाता हैं। जैसे कोन्वेन्स लैंस द्वारा सूर्य की किरणों को एक जगह केन्द्रित कर सूर्य की ऊर्जा शक्ति का केन्द्रीकरण किया जाता हैं। वैसे ही ग्रह से सम्बन्धित रत्न के द्वारा उस ग्रह की ऊर्जा को शरीर में बढ़ा दिया जाता हैं।

इसके विपरीत कुंडली में कोई ग्रह अशुभफल देने वाला हो तो उस ग्रह सम्बन्धी वस्तुओं का जातक के द्वारा दान या गिफ्ट उस ग्रह के नकारत्मक प्रभाव को कम किया जाता हैं।

पर दान देने में अगर कर्म-सिद्धांत को जोड़ दिया जाये तो उसी दान के कई गुना अधिक फल पाया जा सकता हैं।

जैसे किसी कुंडली में मंगल नीच राशिगत या अशुभ फलदाता हैं तो उसे लाल वस्तुओं का दान करना चाहिये। पर अगर ये दान या गिफ्ट उस व्यक्ति को कर दिया जाये जिसकी जन्मपत्री में मंगल शुभ फलदाता हो तो सोने पे सुहागा हो जायेगा।
पर अगर आपने दान या गिफ्ट किसी ऐसे व्यक्ति को दिया जिसकी कुंडली में मंगल अशुभ फलदाता हैं, तो उस बेचारे का तो बेड़ागर्ग हो जायेगा। आपका दिया दान अगर किसी को नुकसान पहुंचाये तो मित्रों ऐसे दान का कोई मतलब नहीं।

इसलिये
दान देते समय पात्र की योग्यता का ध्यान भी रखना जरुरी हैं। योग्य पात्र को दिया गया दान कई गुना अधिक फल देता हैं।

राधे-राधे...

(मित्रों ज्योतिष मात्र भूत-भविष्य को जानने का एक विज्ञान हैं,
पर बिना कर्म-सिद्धांत को समझे भविष्य को बदलना संभव नही)

राधे-राधे...

आत्मा का स्वरूप...


आत्मा का स्वरूप...

क्या होती हैं आत्मा ?
आत्मा का स्वरूप क्या हैं ?
कैसे इसके साथ जन्मों-जन्मों के कर्म जुड़े होते हैं ?
और कैसे किसी व्यक्ति में ये देव इत्यादि आत्माएँ अपने विचारों को प्रकट करती हैं ?

मित्रों पिछले जन्म के भाव आत्मा के साथ टेप या रिकॉर्ड होकर अगले जन्म में ट्रांसफर हो जाते हैं। पर आखिर यह आत्मा पर कैसे टेप होते हैं और ये आत्मा हमें दिखती क्यों नहीं। आईये खोजते है की आत्मा होती क्या हैं।

मित्रों मैं अपने शोध की भाषा में कहूँ कि आत्मा और कुछ नही वो मात्र एक "Electro Magnetic Field" हैं, और कुछ नही। पर सायद अभी आप इस तथ्य को स्वीकार नही कर पायेंगे। इसलिये आइये इसको वैज्ञानिक उदाहरण से समझाता हूँ।

मित्रों Computer CD और Micro SD Card के बारे में तो आप सब जानते होंगे कि इनमे कंप्यूटर के डेटा इत्यादि Save किये जाते हैं। मित्रों एक छोटे से Micro SD Card में आपके जीवन का सम्पूर्ण डेटा अतिसूक्ष्म रूप रिकॉर्ड हो सकते हैं। आप सोच रहे होंगे की कंप्यूटर CD या Micro SD Card का आखिर आत्मा से क्या ताल्लुक ? मित्रों बहुत बड़ा ताल्लुक हैं इसमें, आत्मा का रहस्य तो सामने पड़ा हैं पर किसी की नजर इस पर गई नही।

मित्रों जो लोग Computer की जानकारी रखते हैं वे जानते हैं कि Micro SD Card या CD इत्यादि में सभी डाटा Electro Magnetic Field यानी एक "विद्युत चुम्बकीय क्षेत्र" के रूप में Save होते हैं। और CD ईत्यादि पर रक्षित इन Electro Magnetic Field को सीडी राईटर का एक छोटा सा पॉइंट यानी सेंसर उसे Read कर उसे Text इत्यादि या अन्य रूपों में कन्वर्ट कर देता हैं।

दोस्तों Computer CD या  SD Card तो मात्र एक आधार हैं उस Electro Magnetic Field को सुरक्षित रखने का, बाकी यह "विद्युत चुम्बकीय क्षेत्र" तो हवा यानी ब्रम्हांड में ही बनता हैं। सीडी या SD Card तो उस डेटा को सुरक्षित रखने का मात्र एक साधन हैं।

दोस्तों इस तथ्य को अगर आप नही मान पा रहे हैं तो अपने मोबाईल का ही उदाहरण देख लीजिये। आपके मोबाईल में आप जब कोई पिक्चर खिंचते हैं तब वह मोबाईल के SD Card में Magnetic Field के रूप में Save होती हैं। और जब आप What's app या किसी अन्य application से उसे किसी दूसरे मोबाईल में सेंड करते हो तब वो Magnetic data, बिना किसी CD या SD card के वायुमंडल में तैरते हुए Electro Magnetic Waves के रूप में अगले मोबाईल में पहुँच जाता हैं।

तो मित्रों अब तो आप समझ गये ना कि मोबाईल या कम्यूटर में रक्षित सभी डाटा Electro Magnetic Field के रूप में वायुमंडल में ही बनते हैं, CD या SD card इत्यादि तो मात्र इन्हें सुरक्षित रखने के साधन हैं। मित्रों ये Electro Magnetic Field अतिशूक्ष्म एवं अदृष्य होते हैं। और एक छोटे से SD Card में बहुत अधिक मात्रा में इन्हें सुरक्षित रखा जा सकता हैं।

अब इन Electro Magnetic Fields का आत्मा से क्या सम्बन्ध हैं ?

मित्रों जैसा की मैं अपने पिछले आर्टिकल में बता चूका हूँ कि जन्म से लेकर मृत्यु तक हमारा अंतर्मन हमारे सभी कर्मों की निरन्तर रिकॉर्डिंग कर रहा होता हैं। और हर कर्म के साथ उस कर्म से जुड़ी हुई भावनाएँ भी साथ-साथ रिकॉर्ड होती रहती हैं।

अब सवाल ये उठता हैं की इतनी सारी रिकार्डिंग आखिर कहाँ और किस रूप में होती हैं। और हमारी आत्मा जो पिछले अनेक जन्मों के कर्मो का रिकॉर्ड भी अपने साथ रखती हैं। आखिर ये सब डाटा कहाँ और किस रूप में रक्षित रहते हैं।

सायद आप सोच रहे होंगे की ये डाटा हमारे मस्तिष्क में रहते हैं। क्योंकि हम तो यही सुनते और समझते आ रहे हैं। पर मित्रों मेरी शोध के अनुसार मुझे ऐसा नही लगता की सारे डाटा हमारे मस्तिष्क में रक्षित होते हैं। ये सारी रिकॉर्डिंग Magnetic Fields के रूप में हमारे आभामंडल में Save होती रहती हैं। मित्रों रहस्य बड़ा गहरा और गूढ़ हैं। फिर भी हम कोशिस करेंगे इस विज्ञान को समझने की।

मित्रों हमारा शरीर से हर समय Electro Waves का सम्प्रेषण होता रहता हैं। हम जो भी बोलते हैं तो हमारे कंठ से Electro Waves का प्रसारण होता हैं, और सामने वाला अपने कान के माध्यम से इन चुम्बकीय तरंगो को मस्तिष्क तक पहुँचाता हैं, और मस्तिष्क की कार्यप्रणाली इन तरंगो को decode कर अपना प्रस्तुतिकरण देती हैं। और यह प्रक्रिया माइक्रो सेकण्ड में संपादित हो जाती हैं। पर हमारे कंठ से निकली ये Magnetic Waves मात्र सामने वाले के कान तक ही सीमित नही होती बल्कि आस-पास खड़े सभी लोगों को सुनाई देती हैं। और एक बार कंठ से निकलने के बाद यह कभी भी समाप्त भी नही होती, बल्कि Magnetic Field के रूप में ब्रम्हांड में तैरती रहती हैं। इसके साथ-साथ इसकी एक कॉपी बोलने वाले के स्वयं के पास और सभी सुनने वालों के पास रक्षित हो जाती हैं।

मित्रों अग्नि, पृथ्वी, जल, वायु और आकाश इनसे मात्र हमारे भौतिक शरीर का निर्माण हुआ हैं। पर इस शरीर का संचालन आत्मा के द्वारा होता हैं। पिछले जन्म-जन्मातर के संचित कर्म आत्मा के साथ टेप होकर आते हैं। आत्मा अतिसूक्ष्म ऊर्जा का कण हैं, और जन्म-जन्मान्तर के सभी कर्म आत्मा पर Magnetic Field के रूप में रिकॉर्ड होकर आते हैं और इस जन्म में भी सभी कर्मो की रिकॉर्डिंग हमारी आत्मा के साथ Magnetic Fields के रूप में रक्षित होती रहती हैं। हमारा मस्तिष्क तो मात्र एक CD Writer की तरह काम करता हैं, जो निरन्तर इन Magnetic Fields का निर्माण भी करता हैं और इन Electro Magnetic Fields को Read भी करता रहता हैं। ये सभी Magnetic Fields हमारे आभामण्डल में रक्षित होते रहते हैं और जरूरत पड़ने पर हमारे मस्तिष्क के न्यूरॉन्स इन्हें Read कर सम्पादित कर देते हैं।

मित्रों आत्मा और कुछ नही बस एक Electro Magnetic Field हैं। जिसमें जन्म-जन्मान्तरों के कर्मो का डेटा सेव रहता हैं।

मित्रों जैसे एक कंप्यूटर बिना किसी ऑपरेटिंग सॉफ्टवेयर के मात्र एक टिन का डब्बा हैं, वैसे ही बिना आत्मा के ये शरीर मात्र पंचतत्वों का पूतला हैं। आत्मा के प्रवेश के साथ ही इसमें जन्म-जन्मांतरों का रक्षित डेटा हमारे "स्वभाव" के जरिये Run होने लगता हैं, चुनाव करता हैं, और अच्छे-बुरे परिणामों को प्राप्त करता हैं।

मित्रों जैसे एक CD में रक्षित डाटा बिना कंप्यूटर के कुछ काम के नही वैसे ही एक आत्मा यानी Electro Magnetic Field, बिना शरीर के कुछ काम का नही। इस आत्मा का शरीर में प्रवेश करते ही शरीर रुपी कंप्यूटर हरकत में आ जाता हैं। धीरे-धीरे होता मस्तिष्क के न्यूरॉन्स का विकास आत्मा के साथ जुड़े रिकॉर्ड भावों को Read कर स्वभाव में तब्दील करता जाता हैं। जैसे-जैसे आवश्यकता होती हैं वैसे-वैसे शरीर के हर अंग का और मस्तिष्क का विकास होता जाता हैं।

Continued....

Radhe-Radhe...

धर्म से जीवन का रूपांतरण होता हैं।


धर्म से जीवन का रूपांतरण होता हैं।

एक बार एक शिष्य ने अपने गुरुदेव से पूछा-
गुरुदेव, आप कहते हैं कि धर्म से जीवन का रूपान्तरण होता है। लेकिन इतने दीर्घ समय तक आपके चरणों में रहने के बावजूद भी मैं अपने में उस रूपान्तरण को महसूस नहीं कर पा रहा हूँ।

गुरुदेव मुस्कुराये और उन्होंने बोला कि- एक काम करो, थोड़ी सी मदिरा लेकर आओ। शिष्य चौंक गया पर फिर भी गुरु की आज्ञा को ध्यान में रखकर मदिरा ले आया।

गुरुदेव ने शिष्य से कहा- अब इससे कुल्ला करो। (भाई अपने शिष्य को समझाने के लिए गुरु को हर प्रकार के हथकंडे अपनाने पड़ते हैं।) शिष्य मदिरा को लोटे में भरकर कुल्ला करने लगा। कुल्ला करते-करते लोटा खाली हो गया।

गुरुदेव ने पुछा- बताओ वत्स, तुम्हें नशा चढ़ा या नहीं ?
शिष्य ने कहा- गुरुदेव, नशा कैसे चढ़ेगा ? मैंने तो सिर्फ कुल्ला ही किया है। मैंने उसको कंठ के नीचे उतारा ही नहीं, तो नशा चढ़ने का सवाल ही पैदा नहीं होता।

इस पर संत ने कहा- बस वत्स, इतने वर्षो से तुम धर्म का कुल्ला ही करते आ रहे हो। यदि तुम इसको गले से नीचे उतारते तो तुम पर धर्म का असर यानी रूपांतरण होता।

वत्स जो लोग केवल सतही स्तर पर धर्म का पालन करते हैं। जिनके गले से नीचे धर्म नहीं उतरता, उनकी धार्मिक क्रियायें और जीवन-व्यवहार में बहुत अंतर दिखाई पड़ता है। वे मंदिर में कुछ होते हैं, व्यापार में कुछ और हो जाते है और व्यवहार में कुछ और होते हैं। वे प्रभु के चरणों में कुछ और होते हैं एवं अपने जीवन-व्यवहार में कुछ और, धर्म ऐसा नहीं हैं, जहाँ हम बहुरूपियों की तरह जब चाहे जैसा चाहे वैसा स्वांग रच ले।

इसलिये वत्स धर्म स्वांग नहीं है, धर्म अभिनय नहीं है, अपितु धर्म तो जीने की कला है, एक श्रेष्ठ पद्धति है।

राधे-राधे...

20 मार्च 2015

"महिमा राम नाम की"


"महिमा राम नाम की"
रामनाम की औषधि खरी नियत से खाय।
अंगरोग लागे नहीं महारोग मिट जाय।।

एक समय की बात हैं,
एक राजा ने अपने महल में एक संत को सत्संग के लिए बुलाया। सत्संग पूरा होने के बाद राजा ने संत से कहा की गुरुवर राज्य की प्रगती और सुख शांति हेतु कोई मंत्र दीजिये। तब संत ने राजा को "राम" नाम का मंत्र दिया। राजा को कुछ ठीक नही लगा तो उसने कुछ देर बाद फिर संत से कहा की कोई मंत्र भी दे दीजिये।

संत ने गुस्से में आकर राजा से कहा अरे गधे इतना अच्छा मंत्र दिया फिर भी तू नही समझ पाया। अपने लिए गधे जैसा शब्द सुन राजा मन ही मन क्रोधित हो गया।

राजा को क्रोधित देख कर संत ने कहा राजन तुमको गधा कहा इसलिए बुरा लगा, क्योंकि तुम जानते हो की गधा क्या है। गधे का नाम सुनते ही उसकी छवि तुम्हारे सामने आ गई। और उससे तुम्हारा क्रोध जाग गया।

राजन जब गधे जैसे शब्द ने तुम्हे इतना लाल-पिला कर तुम्हारे क्रोध को जगा दिया और तुम्हारी मानसिक शांति को भंग कर दिया, तो सोचो "राम" के नाम में कितनी शक्ति और शान्ति होगी।

राजन शब्द ब्रम्ह हैं।
"शब्दों" की उर्जा मन को प्रभावित कर तन को गति देती हैं। और संसार के सारे कार्य शब्दों से संचालित होते हैं। बुरे शब्दों का प्रयोग करने से आसुरी शक्तिया जाग्रत होकर मानसिक उर्जा का नाश करती हैं। और अच्छे शब्दों के प्रयोग से देविय शक्तिया जाग्रत होती हैं। जिससे मानसिक और सांसारिक दोनों सुख प्राप्त होते हैं।

मंत्र का मतलब जिसके जपने से जिसके मन तर जाये उसे कहते है मंत्र (मन+तर=मंत्र)।
इसलिए राजन "राम" नाम के मंत्र को जपते रहो इसी से कल्याण होगा।

जय रामजी की..

तुझमे रब दीखता हैं यारा में क्या करूँ... तुझमे रब दीखता हैं यारा में क्या करू.....


क्या आपने कभी ईश्वर को देखा हैं ?
नहीं देखा...
कोई बात नही,
आइये में आपको उनसे मिलाता हूँ।

इतिहास की एक ऐसी हीं सत्य घटना के द्वारा
आपको ईश्वर से रूबरू कराने का प्रयास है मेरा।

सन 1498 की बात है, रोम के एक प्रसिद्ध मूर्तिकार थे माइकल एंजिलो। उनके जीवन की एक श्रेष्ट कलाकृति थी "मरियम और जिसस" की मूर्ती। जो आज विश्व प्रसिद्ध मूर्तियों में एक हैं। इसी मूर्ती के निर्माण सम्बन्धी इतिहास की ये एक सत्य घटना हैं

माइकल एंजिलो एक नई मूर्ती बनाने हेतू पत्थर खरीदने एक दूकान पर जाते हैं। पर उन्हें वहाँ एक भी पत्थर पसंद नही आता हैं। और जब वो दूकान के बाहर निकलते हैं तो उनकी नजर दूकान के बाहर पड़े एक बड़े से पत्थर पर पड़ती हैं। वे दूकानदार से उस पत्थर के बारे में पूछते हैं। तो दूकानदार उनसे कहता हैं कि सर ये पत्थर तो बेकार अनगढ़ पत्थर है इसलिए मैंने इसे दूकान के बाहर रख दिया हैं। आप चाहे तो इसे मुफ्त में लेजा सकते हैं। माइकल एंजिलो को वह पत्थर बहुत पसंद आता हैं। और वो उस पत्थर को ले जाते हैं।

दो वर्षो की मेहनत के बाद मूर्तिकार ने उस पत्थर से मरियम और जीसस की ऐसी मूर्ति बनाई जिसे उस समय की सर्वश्रेष्ठ कलाकृति का सम्मान दिया गया। और वो कलाकृति आज भी विश्व प्रसिद्ध मूर्तियों में से एक हैं।

एक दिन माइकल एंजिलो को वो पत्थर वाला दूकानदार मिलता है, और उनसे पूछता हैं कि सर आपने इतनी अच्छी मूर्ती बनाई हैं, पर इतना अच्छा पत्थर आपको मिला कहाँ से। तब माइकल ने कहा की भाई ये वो ही पत्थर जो तुम्हारी दूकान के बाहर पड़ा था। जिसे तुमने अनगढ़ पत्थर बोलकर मुझे मुफ्त में दे दिया। दूकानदार को बड़ा आश्चर्य हुआ और बोला की उस अनगढ़ पत्थर से आपने इतनी अच्छी मूर्ती कैसे बना डाली।

तब माइकल ने कहा की भाई जब मैंने इस पत्थर को पहली बार तुम्हारी दूकान के बाहर देखा तभी मुझे इस पत्थर में मरियम और जीसस नजर आये। और मुझे ऐसा लगा की वो मुझे बार-बार कह रहे हैं कि... हमें इस पत्थर से बाहर निकालो, हमें इस पत्थर से बाहर निकालो। बस मैंने उस पत्थर में से जो अवन्छिनीय तत्व थे उन्हें छेनी हथोड़े से बाहर निकाल दिया बस, बाकी मरियम और जीसस तो इसमें पहले से ही बैठे थे।

कहानी से तात्पर्य ये हैं कि "ईश्वर" संसार के कण-कण में बसा है, बस देखने वाले की नजर चाहिये। पर हमारे पास वो द्रष्टि नही, वो नजरिया नही जो उसे देख पाए। जैसे एक शेर को सामने वाला हर कोई शिकार नजर आता हैं, वैसे हीं एक सच्चे भक्त को संसार की हर चीज में भगवान् नजर आता हैं।

अरे भाई दूध के कण-कण में घी है, पर कभी दीखता है? चाहे दूध को छान भी लो तो भी घी नही निकलता। दूध में से घी प्राप्त करना हो तो दूध को मंथना होगा। मंथन करने से जब दूध से सारी अशुद्धिया निकल जाएगी तब हमें घी प्राप्त होगा। बस वैसे हीं हमें हमारे इस मन का मंथन करना होगा और जिस दिन हमारे मन की सारी अशुद्धियाँ, सारे विकार, सारे राग द्वेष सभी निकल जायेंगे तब आपको खुद में क्या दूसरों में भी ईश्वर नजर आने लग जायेगा। और तब आप खुद कह उठेंगे कि...

तुझमे रब दीखता हैं यारा में क्या करूँ...
तुझमे रब दीखता हैं यारा में क्या करू......

राधे-राधे....

"राधे-राधे" लिखने का रहस्य।


मित्रों मै हर बात के पीछे राधे-राधे लिखता हूँ।
मित्रों इसके पीछे भी एक बहुत बड़ा रहस्य छुपा हुआ हैं।

वो ये है कि जब भी आप कहीं पर खड़े होते हैं, तब आपके आस-पास अगर कोई आपकी प्रियसी का नाम ले या उसकी चर्चा करे तो आपका ध्यान सब बातों से हटकर उस और चला जाता हैं। और आप ये जानना चाहते है की आपकी प्रिये के बारे में क्या चर्चा चल रही हैं।

बस में भी मै भी यही चाहता हूँ की भगवान् मेरी हर बात पढ़े इसलिये हर बात के पीछे राधे-राधे लिख देता हूँ। फिर भगवान् चाहे संसार के कार्यों में कितने भी व्यस्त क्यों ना हो मेरे आर्टिकल की तरफ उनका ध्यान आ ही जाता हैं।

अरे भाई ईश्वर से कनेक्ट होने की ये रेडियो फ्रिक्वेंसी है।

Radhe-Radhe...

दुःख तो सभी के जीवन में बराबर होता हैं।


दुःख तो सभी के जीवन में बराबर होता हैं।

मित्रों एक बार एक नवयुवक किसी संत के पास पहुंचा और बोला महात्मा जी, मैं अपनी ज़िन्दगी से बहुत परेशान हूँ, कृपया इस परेशानी से निकलने का उपाय बताएं।

संत उसकी मानसिक स्तिथी को समझ कर बोले, वत्स पानी के ग्लास में एक मुट्ठी नमक डालो और उसे पीयो। युवक ने ऐसा ही किया, उसने एक मुट्ठी नमक एक ग्लास पानी में मिलाकर पिया। फिर संत ने पूछा वत्स, इसका स्वाद कैसा लगा ? युवक बोला बहुत ही खराब, एकदम खारा, युवक थूकते हुए बोला।

संत मुस्कुराते हुए बोले.. ऐसा करो एक बार फिर अपने हाथ में एक मुट्ठी नमक लो और मेरे पीछे-पीछे आओ। दोनों धीरे-धीरे आगे बढ़ने लगे और थोड़ी दूर जाकर स्वच्छ पानी से बनी एक झील के सामने रुक गए। फिर संत बोले चलो अब इस नमक को पानी में डाल दो। युवक ने ऐसा ही किया। संत बोले अब इस झील का पानी पियो। युवक पानी पीने लगा... संत ने कहा वत्स बताओ अब इसका स्वाद कैसा है, क्या अभी भी तुम्हे ये खारा लग रहा है ? युवक बोला नहीं, ये तो मीठा है, बहुत अच्छा है।

संत युवक के बगल में बैठ गए और उसका हाथ थामते हुए बोले, वत्स सभी के जीवन में दुःख भी बिलकुल नमक की तरह ही होता हैं.. न इससे कम ना ज्यादा.. बस फर्क सिर्फ इतना ही है कि तुम उसे किस पात्र में ले रहे हो। इसलिए वत्स जब तुम दुखी हो तो सिर्फ इतना करो कि खुद को बड़ा कर लो ग्लास मत बने रहो झील बन जाओ।

राधे-राधे...

आपने भले ही अच्छे भाव रखकर भलाई का काम किया हो, पर अगर उसके बावजूत भी किसी का भला न होकर हानि हो जाये तो भी हमें उस पाप का फल जरुर मिलेगा।


मित्रों जैसे भारत के कानून में एक ही तरह के जुर्म पर अलग-अलग धाराएँ लगाकर फल यानी सजा का निर्णय लिया जाता हैं वैसे ही ईश्वरीय क़ानून में एक ही प्रकार के कर्म करने के बावजूत भी अलग-अलग फलो का निर्धारण किया जाता हैं। मैं अक्सर कहता हूँ कि हमें कर्मों का नही बल्कि भावों का फल मिलता हैं, कर्म तो मात्र एक साधन होता हैं फल तक पहुँचने का। फिर भी मित्रों एक सिद्धांत ऐसा भी हैं जिसमें भले ही आपने अच्छे भाव रखकर कर्म किया हैं, परन्तु फिर भी उस कर्म का परिणाम बुरा भुगतना पड़ता हैं।

ऐसी ही एक घटना हैं महाभारत काल की जिसमे ऐसा ही एक उदाहरण मिलता हैं।

मित्रों भीष्म पितामाह जब अपना शरीर छोड़ रहे थे तब उन्होंने श्री कृष्ण से पूछा, हे कृष्ण मुझे शूल शैया पैर क्यों लेटना पड़ा ? जबकि मैं अपने पिछले 70 जन्म तक देख चुका हूँ, उनमे मुझे ऐसा कोई कर्म नज़र नहीं आता जिस कारण ये गति हुई हैं।

तब श्री कृष्ण ने कहा पितामाह, आप अपना 71वां जन्म देखिये उस जन्म में आप एक राजा थे। और एक बार शिकार खेलने गये तब आपको रास्ते में एक घायल सर्प पड़ा दिखा। आपने सर्प को मार्ग में पड़ा देखकर उस सर्प को अपने बाण से उठाकर झाड़ियों में फेंक दिया, जिससे वो सर्प एक काटेदार झाड़ में जा गिरा और उसके पूरे शरीर में उस झाड़ के काँटे चुभकर आर-पार हो गये जिस कारण वो सर्प तिल-तिल कर मर गया। बस पितामाह आपको उसी कर्म की गति को आज भोगना पड़ रहा हैं।

मित्रों इस घटना से तात्पर्य ये हैं कि हमने भले ही अच्छे भाव रखकर भलाई का काम किया हो, पर अगर उसके बावजूत भी किसी का भला न होकर हानि हो जाये तो भी हमें उस पाप का फल जरुर मिलेगा।

राधे-राधे...

"विश्वास फलं दायकम"


"विश्वास फलं दायकम"

अर्थात किसी बात, वस्तु, आस्था या धर्म पर विश्वास से हीं फल की प्राप्ति होती हैं। इसलिये "मानो तो भगवान् हैं और नही मानो तो पत्थर"।

आईये मित्रों मन के इसी "विश्वास" को एक सत्य घटना से आपको बताने का प्रयास करता हूँ।

मित्रों एक बार एक गाँव के व्यक्ति को बुखार आ जाता हैं। उस समय गाँव में शहर का एक बड़ा डॉक्टर आया हुआ होता हैं। ग्रामीण जो हमेशा गाँव के वैद्य से दवा लेता था वो इस बार बड़े ही "विश्वास" डॉक्टर के पास जाता हैं। डॉक्टर उसका चेक-अप कर एक पेपर पर दवाई लिख देता है और ग्रामीण को बोलता है की जाओ तीन दिन तक इसे पानी में घोल कर शुबह-शाम पी लेना।

मित्रों वो ग्रामीण बिल्कुल भोला-भाला था, और उसे डॉक्टर के इस पर्चे पर बहुत विश्वास था। उसने घर जाकर उस पेपर के छ टुकड़े किये और तीन दिन तक पूर्ण विश्वास के साथ सुबह-शाम एक-एक टुकड़े को पानी में घोल कर पी लिया, और तीन दिन में ठीक हो गया।

ठीक होने पर ग्रामीण वापस डॉक्टर के पास गया और बोला डॉक्टर साहब आप तो बड़े ही चमत्कारी हो, आपने ऐसा मन्त्र लिखा जिससे मै इतना जल्दी ठीक हो गया। डॉक्टर ने कहा लाओ पर्ची दो देखता हूँ क्या मैंने कोनसी दवाई लिखी थी।

ग्रामीण बोला डॉक्टर साहब आपने पर्ची देते समय कहा था ना कि इसे तीन दिन तक सुबह-शाम पानी में घोल कर पी लेना, सो उस पर्ची के मैंने छ टुकड़े करके तीन दिन तक पानी में घोल कर पी लीये और अब बिल्कुल ठीक हो गया हूँ। डॉक्टर इस बात को सुन कर बहुत हैरान रह गया की देखो मैंने तो इसे पर्ची पर दवाई लिख कर दी थी, पर इसका विश्वास देखो कि इसने पर्ची पर लिखी दवाई को मंत्र समझ कर पानी में घोल कर पी लिया और ठीक भी हो गया।

मित्रों इसलिए कहते हैं कि "विश्वास फलं दायकं"
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मित्रों हमारा मन बहुत शक्तिशाली हैं। आज हमारे साथ अच्छा-बुरा जो भी हो रहा हैं वो इस मन की हीं शक्ति का कमाल हैं। हाँ हालाँकि आपके लिये अभी इस बात को मानना कठिन हैं, पर आने वाले समय में आप मेरे विचार से जरुर सहमत होंगे। ये मेरा विश्वास हैं।

मित्रों मन की शक्ति इतनी हैं कि ये जिस बात को मान लेता है वो ही लागू हो जाता हैं। मन का विश्वास विष को भी अमृत बना देता हैं। राणा ने मीरा को विष दिया, पर प्रभु प्रेम में मीरा विष को भी अमृत समझ कर पी गई। मित्रों मन के "विश्वास" ने जहर को भी अमृत बना दिया। सीता माता जो भूमि पुत्री थी उन्होंने भूमि से उत्पन्न तिनके में "विश्वास" के साथ उसमे अपना भाई देखा, तो उस तिनके में भाई जैसी शक्ति आ गई और दुराचारी रावण माता को छू तक नही सका।

मित्रों इस मन की शक्ति के बारे में जितना बताऊँ उतना कम है। मेरा अवचेतन मस्तिस्क ऐसे हजारों उदाहरणों से भरा पड़ा है। मित्रों में प्रयास करूँगा कि जब-जब समय मिलेगा तब-तब ऐसे रहस्यों से अवगत कराता रहूँगा।

राधे-राधे...

कितना भी दान-धर्म करलो, फिर भी पुण्य का पूर्ण फल नही पा सकते।


कितना भी दान-धर्म करलो,
फिर भी पुण्य का पूर्ण फल नही पा सकते।
क्यों ?

मित्रों इसी सन्दर्भ में एक कथा आती हैं।

एक समय एक बहुत बड़ा व्यापारी था। वो बड़ा हीं धर्मात्मा था। उसने अपने नाम से हॉस्पिटल, स्कूल, वृद्धाश्रम, गौशाला और बहुत से सेवाश्रम बनवाये थे। और इसके साथ अपने नाम से बहुत दान-धर्म करता रहता था। पूरे शहर में वो सेठ धर्मिचन्द के नाम से मशहूर था। और इसी ख्याति से उसने पूरा जीवन बहुत मान सम्मान से जिया।

मित्रों मृत्यु के बाद जब व्यापारी ऊपर जाकर यमराज के सामने पेश हुआ तो यमराज ने अपने दूतों से कहा कि सेठजी को उठा कर नरक में फेंक दो। यह बात सुनकर सेठजी को बहुत झटका लगा। वो यमराज से बोले कि महाराज मैने अपने जीवन में बहुत दान-धर्म किया है, फिर मुझे यह नरक क्यों ?

तब यमराज बोले की धर्मिचन्द जो दान-धर्म आप करके आये हैं उसके यश का सुख तो आप संसार में हीं पा चुके है।

और अब आप किस दान-धर्म पर स्वर्ग के सुख का सुख पान चाहते है ? उस धर्मशाला की जिसके ऊपर आपका नाम लिखा हुआ है कि फलां जी की धर्मशाला, फलां जी की स्कूल, फलां जी की प्याऊ।

धर्मिचंदजी क्या आपने कभी कोई दान-धर्म भगवान् के नाम से भी किया था ? कभी कोई स्कूल या धर्मशाला भगवान् के नाम की बनाई हैं ? हर काम आपने अपने नाम से किया है। यहाँ तक की गौशाला में चारा भी आपने अपने नाम से दिया। कहीं भी आपने श्रीराम, श्रीकृष्ण या अन्य कोई भगवान के नाम की रसीद नही कटवाई।

और अगर कोई दान-धर्म भगवान् नाम से किया होता, तो उसकी रसीद हमारे पास आती और हम तुम्हे भगवान् के घर में स्थान देते, स्वर्ग का सुख देते। परन्तु अफ़सोस हर दान के आगे तुमने तुम्हारा नाम जोड़ कर उसके सुख को वहीं पा लिया। इसलिए धर्मिचंदजी अब नरक जाईये और आपने जो पाप किये है अब उनका फल भोगिये।
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मित्रों कहानी से तात्पर्य इतना ही है कि आप अपनी जो "मै" है उसे मिटाओ। क्योकि मै से अहंकार का भाव छलकता हैं। ये संसार भगवान् का बनाया है और आपके पास जो भी है वो उसी का दिया हैं। और जो भी उसने दिया हैं, वो संसार की सेवा के लिए दिया हैं। इसलिये संसार में जो भी दान-धर्म करो वो भगवान् को समर्पित करके करो। भगवान् के नाम से करोगे तो ही ईहलोक और परलोक दोनों जगह सुख पाओगे।

मित्रों गोस्वामी जी का नाम तो अपने सुना ही होगा, वे बहुत बड़े दानी थे। पर जब भी दान करते थे अपनी नजरों को निचे झुका लेते। जब उनसे किसी ने पूछा की ईतना श्रेष्ठ कर्म करने के बाद भी आप नजरें क्यों झुका लेते है ? तो उन्होंने अपने अंदाज में कहा... कि

देनहार कोई और है, जो भेजत है दिन रैन
लोग भरम हम पे करें, तासु निचो नैन ।।

अर्थात देनेवाला कोई और है, और लोग हम पे भरम करते है की हम दे रहे हैं, इसलिए नजरे झुक जाती हैं ।

राधे-राधे...

कितने भी पूजा-पाठ करलो, पर फिर भी ईश्वर की कृपा को नही पा सकोगे।


मित्रों कितने भी जतन करलो,
कितने भी पूजा-पाठ करलो,
पर फिर भी ईश्वर की कृपा को नही पा सकोगे।

आइये दोस्तों एक ज्ञान भरी कहानी को लेकर में आपको ईश्वर से मिलाता हूँ।

मित्रों आपने यह कहावत तो सुनी होगी कि...

चतुराई सब चौपट करे, ज्ञानी गोता खाय
और भोला भला भक्ता ने, जट दर्शन हो जाय

मित्रों चतुर भक्तों की चतुराई धरी की धरी रह जाती हैं, और ज्ञानी भी अपने ज्ञान के अहंकार में गोते लगाते रहते हैं, फिर भी उसकी कृपा को नही पा सकते। पर जो भोले-भाले भक्त होते हैं, भगवान् उन पर कृपा बरसा कर चले जाते हैं।

मित्रों एक समय की बात है, एक गाँव में एक भोला सा किसान खेती बाड़ी कर अपने परिवार का पालन पोषण करता था। उसी गाँव के शिव मंदिर में, गाँव का एक चतुर महाजन रोज मंदिर जाकर एक ज्ञानवान पुजारी से पूजा-पाठ कराकर अभिषेक किया करता था। मित्रों वो किसान रोज महाजन को मंदिर जाते देख एक दिन महाजन से पूछ बैठता है कि सेठजी आप रोज मंदिर जाते हो आखिर मंदिर में क्या है ? तो महाजन बोलता है मंदिर में भगवान है और हम लोग भगवान से सुख-समृद्धि, धन-दोलत मांगने जाते है। तो किसान जो की बहुत भोला होता है वो पूछ बैठता है की क्या भगवान ये सब देते है? महाजन बोलता है, हाँ भगवान् सब कुछ देते है। भोला-भाला किसान महाजन की बात मान कर चला जाता है।

कुछ समय बाद किसान की पुत्री विवाह योग्य हो जाती है। इसलिए किसान महाजन के पास उधार मांगने जाता है। पर भोला किसान बातो ही बातो में महाजन को यह बोल देता है की सेठजी आज तो में आपसे उधार नही लूँगा बल्कि आज तो में भी मंदिर जाकर भगवान से माँगूगा। महाजन उसकी बात सुनकर मन ही मन हँसता है और उसे मंदिर जाने को बोलता है। मंदिर का पुजारी भी उसे मंदिर जाते देख कर हँसने लगता है।

किसान मंदिर के अन्दर जाता है और भगवान को ढूंढता है। पर उसे मंदिर में कोई नज़र नही आता। फिर एक और उसे शिव लिंग दीखता है जिसके बारे में वो कुछ नही जानता। शिव लिंग के ऊपर बड़ा सा घड़ा टंगा देख कर वो सोचता हैं की चलो लगता है यह घड़ा भगवान् ने मेरे लिए ही रखा हैं, चलो ये ही ले चलता हूँ, इसे बेचकर कुछ पैसे मिल जायेंगे। मित्रों घड़े को उतारने के लिए वो शिव लिंग पर पैर रख कर जैसे ही घड़ा उतारने का प्रयास करता हैं, तभी भगवान् भोले नाथ बम-बम-बम-बम करते प्रकट हो जाते हैं और उससे बोलते हैं माँग-माँग-माँग तुझे जो चाहिए वो सब माँगले, आज तो मै तुझे सब-कुछ दे दूंगा।

मित्रों भोला किसान सांप गले में डाले शिवजी का रूप देखकर डर जाता हैं और कहता है आप कोन हो, मुझे तो महाजन ने कहा मंदिर में भगवान् है वो सबकी इच्छा पूरी करते है इसलिए में आया हूँ। उसकी बात सुनकर शिवजी कहते है वत्स में हीं भगवान् हूँ, और तेरी पूजा से बहुत प्रसन्न हूँ। लोग तो आकर कोई दूध चढाता हैं, कोई पानी कोई धतूरा चढाते हैं। पर तू तो मेरा अनोखा ही भक्त हैं जो खुद पूरा का पूरा मेरे ऊपर चढ़ गया। तेरे जैसा भक्त पाकर आज में धन्य हो गया हूँ, इसलिये जा तूने ये जो घड़ा उतारा हैं वो में सोने से भर देता हूँ। किसान को सोने से भरा घड़ा देकर भगवान् अंतर्ध्यान हो जाते हैं।

किसान मंदिर से बाहर आता हैं तो उसके हाथ में सोने का घड़ा देख महाजन और पुजारी दंग रह जाते हैं। किसान उन्हें पूरा वृतांत सुनाता हैं जिसे सुनकर दोनों आश्चर्यचकित हो जाते हैं और खुद की चतुराई और ज्ञान को कोसने लग जाते हैं।

मित्रों इसी सत्य घटना से यह कहावत बनी थी कि...

चतुराई सब चौपट करे, ज्ञानी गोता खाय
और भोला-भाला भक्ता ने, जट दर्शन हो जाय।।

राधे-राधे...

अगर आपमें स्वयं में अनुशासन हैं तो हीं आप दूसरों पर शासन कर सकते हो।


अगर आपमें स्वयं में अनुशासन हैं
तो हीं आप दूसरों पर शासन कर सकते हो।

कैसे?

एक बार एक बच्चे की गुड़ खाने की आदत से उसके घर वाले बहुत परेशान होते हैं। उसकी यह आदत छुड़ाने के लिए उसकी माँ उसे एक सन्यासी के पास ले जाती हैं। सन्यासी उसकी समस्या सुन एक माह बाद आने को कहते हैं।

एक माह बाद जब माँ फिर बच्चे को लेकर आश्रम जाती हैं तब सन्यासी उस बच्चे से इतना ही कहता है कि, "बेटा ज्यादा गुड़ खाना अच्छी बात नही हैं, इसलिए अब से गुड़ मत खाना"। बस इतना कह कर सन्यासी ने उसकी माँ को बोल दिया कि जाओ अब ये बच्चा गुड़ नही खायेगा। माँ को सन्यासी का आचरण अजीब सा लगा और वो सन्यासी को ढोंगी समझकर बच्चे को घर ले आती हैं।

दो-तीन दिन में बच्चे को गुड़ नही खाता देखकर सभी लोगों को बड़ा आश्चर्य होता हैं। सन्यासी का चमत्कार देखकर सब लोग सन्यासी के पास जाते हैं और उनसे माफ़ी मांगकर कहते है कि बाबा आप तो बहुत चमत्कारी हो, आपने तो इसे सिर्फ इतना ही कहा कि "गुड़ खाना अच्छी बात नहीं है और अब से गुड़ मत खाना"। और इसने गुड़ खाना छोड़ दिया। जबकि हम इसे रोज कहते थे पर इसने कभी हमारी बात नही मानी।

तब सन्यासी ने कहा माता इसमें चमत्कार वाली कोई बात नही है। बल्कि बात तो यह थी कि मै स्वयं बहुत ज्यादा गुड़ खाता था। पर इस एक माह में मैंने स्वयं गुड़ खाना छोड़ दिया तब जाकर इस बच्चे को यह बात कहने के लायक हुआ। क्योकि जब तक कोई गुण मुझमे नही तब तक उसे में दुसरे में कैसे विकसित कर सकता हूँ।
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मित्रों कहानी से तात्पर्य यही है कि जब तक कोई गुण आपमें नहीं तब तक आप उसे दूसरों में विकसित नही कर सकते। आपमें अनुशासन होगा तो ही आप दूसरों पर शासन कर सकते हैं।

अक्सर माता-पिता की यह शिकायत होती है की बच्चे हमारी बात नही मानते। अरे मानेंगे कैसे जो चीज आपके पास नही हैं, वो आप उनको देने चले हैं। अरे भाई मारवाड़ी में एक कहावत हैं कि
"कुँवा में होई जदे खेळी में आई"
यानी कुँवे में पानी होगा तो हीं बाल्टी में आएगा ना।
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मित्रों जब तक कोई गुण आपमे विद्धमान नही हैं तब तक आप उसे दूसरों में विकसित नही कर सकते है। क्योकि विद्धता से सिद्धता आती है। और जो चीज या गुण आपके पास नही, वो आप दूसरों को कैसे दोगे।

राधे-राधे...

ईश्वर किसी भी आडम्बर में रुची नही रखते बल्कि वे तो भाव के भूखे होते हैं।


ईश्वर किसी भी आडम्बर में रुची नही रखते बल्कि वे तो भाव के भूखे होते हैं।

आइये मित्रों ईश्वरीय प्रेम की एक सत्य घटना।

मित्रों अपने जीवन के एक काल में मीराबाई वृंदावन के एक मंदिर में ठाकुरजी को भोग लगाने के लिए रसोई पकाती थीं। वे भक्ती और ईश्वर प्रेम में इतना लीन रहती थी की सुबह उठते ही भजन गुन-गुनाते हुए बिना नहाये-धोये और बिना वस्त्र बदले ठाकुरजी के भोग की तैयारी करने लग जाती।

एक दिन मंदिर के प्रधान पुरोहित ने देखा कि मीरा अपने वस्त्रों को बिना बदले और बिना स्नान किए ही रसोई बना रही हैं। उन्होंने बिना नहाए-धोए भोग की रसोई बनाने के लिए मीरा को डांट लगा दी। पुरोहित ने उनसे कहा कि मीरा, ईश्वर यह अन्न कभी भी ग्रहण नहीं करेंगे।

पुरोहित के आदेशानुसार, दूसरे दिन मीरा ने भोग तैयार करने से पहले न केवल स्नान किया, बल्कि पूरी पवित्रता और खूब सतर्कता के साथ भोग भी बनाया। और शास्त्रीय विधि का पालन करने में कहीं कोई भूल न हो जाए, इस बात से भी वे काफी डरी रहीं।

मित्रों तीन दिन बाद पुरोहित के स्वप्न में ठाकुरजी आये और उन्होंने पुरोहित से कहा कि वे तीन दिन से भूखे हैं। उन्हें पहले जैसा भोजन नही मिल रहा। पुरोहित ने कहा प्रभु जरूर मीरा से कुछ भूल हो गई होगी, उसने भोजन बनाने में न शास्त्रीय विधान का पालन नही किया होगा और न ही पवित्रता का ध्यान रखा होगा। ईश्वर बोले-- नही पुरोहित जी ऐसा नहीं हैं बल्कि पिछले तीन दिनों से वह काफी सतर्कता के साथ भोग तैयार कर रही है और भोजन तैयार करते समय वह हमेशा यही सोचती रहती है कि उससे कहीं कुछ अशुद्धि या गलती न हो जाए। इस फेर में मैं उसका प्रेम तथा मधुरभाव महसूस नहीं कर पा रहा हूं। पुरोहित जी मुझे भोजन में वो रस नही मिल रहा जो पहले मिलता था, इसलिए यह भोग मुझे रुचिकर नहीं लग रहा है। ईश्वर की यह बात सुन पुरिहित हैरान रह गये।

अगले दिन पुरोहित ने मीरा से न केवल क्षमा-याचना की, बल्कि पहले की ही तरह उसी प्रेमपूर्ण भाव से भोग तैयार करने के लिए अनुरोध भी किया।

मित्रों कहानी से तात्पर्य ये हैं कि ईश्वर किसी भी आडम्बर में रुची नही रखते बल्कि वे तो भाव के भूखे होते हैं। ।

राधे-राधे...
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मित्रों इसी सन्दर्भ में एक सत्य और बताना चाहता हूँ आपको। आजकल अक्सर देखने को मिलता है की लोग ठाकुरजी को खुश करने के लिये बड़े-बड़े कार्यक्रमों का आयोजन करते हैं और ऐसे में लोगों से बड़ी मात्रा में चन्दा लेकर भोग का आयोजन किया जाता हैं। मित्रों जरुरी नही हैं की सभी लोग भाव से चन्दा देते हैं, अधिकतर लोग दबाव में आकर पैसा तो दे देते हैं पर अन्दर ही अन्दर उन्हें और मेरे ठाकुर दोनों को कोसते हैं।

मित्रों मेरा ठाकुर तो प्रेम का भूखा हैं, उसे ऐसे अभक्तों के दिये हुए चन्दे के पैसो का भोग बिल्कुल गले नही उतरता। आयोजक लोग तो मात्र अपनी कीर्ति और मान-सम्मान के फेर में रहते हैं। उन्हें इस बात का बिलकुल ज्ञान नही कि ऐसा करके वे ठाकुरजी को खुश नही बल्कि उनके सही भक्तों का मान घटाकर अभक्तों को बढ़ावा दे रहे हैं।

मित्रो महाभारत काल में श्रीकृष्ण ने दुर्योधन के छप्पन भोग को ठुकरा कर विदुरानी की साग-पुड़ी का भोजन करना पसंद किया था। क्योंकि बिदुरानी ने बड़े ही भाव से कृष्ण के लिये भोजन बनाया था। इसलिए मित्रों आप अपने घर में जो भी बनाए उसे बड़े प्रेम से ठाकुरजी के भोग लगाये, विश्वास मानिए मित्रों ठाकुर आपके घर की साग-पुड़ी के भोग को बड़े प्रेम से ग्रहण करेगा। आपके इस प्रेम से वो ठाकुर कभी भूखा नही रहेगा।

मित्रों ये बात अभक्तों के लिये बहुत कड़वी है...
पर क्या करूँ.... सत्य हमेशा कड़वा ही होता हैं।

राधे-राधे...

जो लोग भगवान् को समर्पित करके कर्म करते है उनके जीवन में किसी प्रकार का कष्ट और हानि नही आती।


जो भी कर्म करो वो भगवान को समर्पित करके करो
क्योकि जो लोग भगवान् को समर्पित करके कर्म करते है उनके जीवन में किसी प्रकार का कष्ट और हानि नही आती।

मित्रों एक समय की बात हैं एक राजकुमार अपने पिता के मरणोपरांत राज्य का राजा बन बड़ी लगन के साथ अपने कर्तव्यों का पालन कर रहा था। पर अनुभव की कमी के कारण वो हमेशा चिंतित और दुखी रहता था।

एक दिन उसके महल में एक संत आगमन होता हैं। राजा संत की बहुत अच्छी सेवा करता है। पर राजा को चिंतित देख कर संत राजा को चिंता का कारण पूछते हैं। तब राजा राज्य की प्रगती और उन्नती के बारे में अपनी चिन्ता बताते है। संत राजा की समस्या को भांप लेते है और राजा से कहते हैं कि राजन कुछ समय के लिए तुम अपना राज-पाठ मुझे दान में दे दो, फिर में सब कुछ ठीक कर दूँगा। संत के कथन से सहमत होकर राजा राज्य को दान में लिखकर संत की झोली में डाल देता है।

संत राजसिंहासन पर बैठ राजा को मंत्री बना देते हैं, और राज्य की देख-रेख का सम्पूर्ण जिम्मा राजा को सौंप देते हैं। राजा अपने मंत्री पद के कर्तव्य को निभाते हुए राज्य की सेवा में लग जाता हैं। कुछ समय बाद संत राजा से कहते है कि राजन में कुछ समय के लिए तीर्थ यात्रा पर जा रहा हूँ, तब तक तुम मेरे राज्य का ध्यान रखना। संत की आज्ञा को एक राजा का आदेश मानकर राजा संत को विश्वास दिलाते है कि आपके आने तक में अपने दायित्व और कर्तव्य के प्रति पूर्ण रूप से समर्पित रहूँगा।

संत के जाने के बाद राजा राज-पाठ की अपनी जिम्मेदारी को बहुत अच्छे ढंग से निभाते हैं। जिससे राज्य की प्रगति दिन-दुनी रात चौगुनी होने लगती हैं। कुछ माह बाद संत वापस आ जाते हैं, और राजा से पूछते हैं कि राजन मेरा राज-पाठ कैसा चल रहा हैं? राजा कहते है, महाराज राज्य में सभी और चंहुमुखी विकास हो रहा है, राज कोष में भी पहले से चार गुना वृद्धि हुई हैं, चारों और खुशहाली हैं और प्रजा भी बहुत सुखी हैं।

तब संत राजा से कहते हैं कि देखो राजन
इस राज-पाठ को पहले भी तुम हीं देखते थे, और अब भी तुम ही देख रहे हो। फर्क सिर्फ इतना हैं की पहले तुम इसे अपना समझ कर कर्म करते थे और अब तुम इसे मेरा समझते हुए अपने कर्तव्य का पालन कर रहे हो।

कहने का तात्पर्य इतना ही हैं राजन कि इस संसार में जब तक तुम कोई कार्य अपना समझ कर करोगे तब तक दुखी ही रहोगे। इसलिये आज ही से तुम अपना सब कुछ भगवान् को समर्पित करदो और संसार के सारे कार्यो को भगवान् का समझ के करो।
क्योकि जो लोग भगवान् को समर्पित करके कर्म करते है उनके जीवन में किसी प्रकार का कष्ट-हानि और दुःख नही आते।

तेरा तुझको अर्पण, क्या लागे मेरा...
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राधे-राधे...

आखिर क्या रहस्य छुपा हैं कछुए की आकृति वाली अँगूठी में


आखिर क्या रहस्य छुपा हैं कछुए की आकृति वाली अँगूठी में।

मित्रों आजकल अधिकतर लोगों को कछुऐ की आकृति वाली अँगूठी धारण किये हुए देखा जाता हैं।
पर क्या कछुऐ की अँगूठी वास्तव में सम्रद्धि लाती हैं ?
क्या इसके धारण करने से जीवन में खुशहाली आती हैं ?
आइये इसके पीछे क्या सिद्धांत काम कर रहा हैं उसको समझते हैं।

मित्रों आपने अक्सर मेरे लेख पढ़े होंगे। मैं हमेशा एक ही बात पर जोर देता हूँ कि, जीवन के इस सफर में आज हम जहाँ पर भी खड़े हैं, और जैसी भी स्तथि में हैं, उसका मूल कारण हमारा "ध्यान" हैं। मन ऊर्जावान हैं और इसका ध्यान जिस और होता हैं ऊर्जा का प्रवाह भी उस और बहने लगता हैं। और हमारे मन के भावों की ऊर्जा ध्यान के माध्यम से जिस और बहती हैं, हम उसी को प्राप्त होते हैं या उस लक्ष्य को पाते हैं।

बस मित्रों कछुऐ की आकृति वाली अँगूठी पहनने के पीछे भी यही "ध्यान" वाला सिद्धांत ही काम कर रहा हैं।

अँगूठी को धारण करने के बाद जब-जब हमारा "ध्यान" इसकी और जाता हैं तब कछुए के साथ जुडी धारणाएँ हमारे मानसिक पटल पर फ्लेश होती हैं। यह क्रिया स्वतः ही संपन्न होती हैं। मित्रों जब भी किसी वस्तु चित्र इत्यादि की तरफ हमारा ध्यान जाता हैं तब तत्काल उससे सम्बंधित धारणाएँ हमारे मानसिक पटल पर प्रकट हो जाती हैं। पूजा-पाठ इत्यादि के पीछे भी यही प्रयोजन हैं कि हम इनके माध्यम से ईश्वर से जुड़े रहे।

मित्रों कछुआ धैर्य, शांति, निरन्तरता(Continuity), लक्ष्य और सम्रद्धि का प्रतिक हैं। कछुए और खरगोश की कहानी तो सभी जानते हैं कि कैसे कछुए ने Continuity रखते हुए अपने लक्ष्य को हासिल किया। और कछुआ लक्ष्मी जी का प्रिय भी हैं। क्योकि लक्ष्मी जी समुद्र मंथन से प्रकट हुई थी, इसलिए समुद्र से निकलने वाले सभी जीव मछली, कौड़ी, शिप, कछुआ इत्यादि सभी लक्ष्मी जी के मित्र माने जाते हैं।

मित्रों कछुए को देखते ही उससे जुड़ी सारी धारणाओं की तरफ हमारा "ध्यान" चला ही जाता हैं, और इसी के चलते हमारे ध्यान की ऊर्जा का प्रवाह उस और हो जाता हैं, जिसके चलते हम धैर्य और शांत स्वभाव को रखते हुए समय पर लक्ष्य का भेदन कर सम्रद्धि को प्राप्त करते हैं।

मित्रों यहाँ में एक बात और कहना चाहूँगा कि कछुए की आकृति वाली अँगूठी अगर किसी बच्चे को पहना दी जाये या किसी ऐसे व्यक्ति को पहना दी जाये जिसे कछुए से जुड़ी इन धारणाओं का ज्ञान नही, तो उसके लिए ये अँगूठी मात्र एक आभूषण साबित होगी। उसे इसका कोई लाभ प्राप्त नही होगा। क्योंकि उसके मन की ऊर्जा का प्रवाह इस और नही होगा।

मित्रों हमारे धर्म की सभी परम्पराओं के पीछे भी यही सिद्धांत काम करता हैं। इन सभी परम्पराओं से जुड़ी कथा-कहानियों के माध्यम से हमारे "ध्यान" की दिशा को एक सकारात्मक विचार से जोड़ दिया जाता हैं। इसलिए कहते हैं "दिशा बदलो, दशा तो अपने-आप बदल जायेगी"। यहाँ दिशा बदलने का मतलब विचारों की दिशा बदलने से हैं।

मित्रों हमारे ऋषि-मुनियों को पता था कि इंसान इस रहस्य की गहराई को समझ नही पायेगा, इसलिये उन्ही सिद्धांतों को परम्पराओं का अमलीजामा पहना कर हमारे समक्ष प्रस्तुत कर दिया गया। और हर परम्परा के द्वारा हमारे ध्यान को एक सकारात्मक विचार से जोड़ दिया।

मित्रों अपने गहन शोध के बाद मैंने जब इस "सिद्धांत" को समझा तो मैं हैरान रह गया कि हजारों वर्ष पूर्व हमारे ऋषी-मुनियों और दार्शनिकों का चिंतन कितना गहरा रहा होगा, जिन्होंने इस सिद्धांत को समझकर अनेक ग्रंथो और परम्पराओं की रचनाएँ कर डाली।

राधे-राधे...

Astrologer & Philosopher
Gopal Arora

18 मार्च 2015

मित्रों अवसर किसी की प्रतीक्षा नही करता, वह आकर निकल जाता है।

मित्रों अवसर किसी की प्रतीक्षा नही करता,वह आकर निकल जाता है।
आइये एक कहानी के माध्यम से आपको इस सच्चाई से रूबरू करवाता हूँ। 

एक बार एक गाँव में एक साधू पेड़ के निचे लम्बे समय से ध्यान लगा रहा होता है। कुछ समय बाद गाँव में बाढ़ आ जाती है। तो कुछ गाँव वाले साधू को जाकर बोलते है कि महाराज गाँव में बाढ़ आ गई हैं इसलिए आप ऊँचे पहाड़ पर चले जाइये। साधू ने गुस्सा होकर गाँव वालो को बोला की मेरा भगवान् मुझे अपने आप बचाएगा तुम्हे पंचायती करने की कोई जरुरत नही है। यह सुनकर गाँव वाले चुपचाप चले जाते है। दो दिनों बाद पानी साधू की कमर तक पँहुच जाता है। तब एक व्यक्ति उधर से नाव लेकर निकलता है, और साधु को देख कर बोलता है साधू महाराज आप मेरी नाव ने बैठिये में आपको ऊँचे स्थान पर छोड़ देता हूँ। नाविक की बात सुन साधू नाविक को कहता है मेरा भगवान मुझे अपने आप बचाएगा तू पंचायती मत कर। यह सुनकर नाविक भी चला जाता है। पानी को ऊपर चढ़ता देख साधू पेड़ पर चढ़ जाता है। उधर साधू को पेड़ पर बैठा देख एक हेलिकोप्टर आकर रस्सी फेकता है और रस्सी पकड़ने को बोलते है। उनको भी साधू यही जवाब देता है कि तू भी चला जा, पंचायती मत कर, मुझे मेरा भगवान् अपने आप बचाने आएगा। बाढ़ का पानी और ऊपर चढ़ जाता है और साधू पानी की धारा में बहकर मर जाता हैं। 

मरने के बाद साधू ऊपर जाता हैं और भगवान् को कहता हैं कि मैंने तुम्हारी पूरी लगन के साथ आराधना की, तपस्या की पर मै जब डूब रहा था फिर भी तुम मुझे बचाने नही आये। ऐसा क्यों प्रभु ? भगवान् बोले हे साधू महात्मा में एक बार नही दो बार नही बल्कि तीन-तीन बार मै तुम्हारी रक्षा करने आया। पहला ग्रामीण के रूप में दूसरी बार नाविक बनके और तीसरी बार तो हेलिकॉप्टर लेकर आया फिर भी तुम मेरे दिये हुए "अवसरों" को पहचान नही पाए। तुम क्या समझते थे कि में शंख-गदा-पदम् और चक्र लिये तुम्हारे सामने आता। साधू महात्मा में नर-नारायण हूँ और हर घट मे, मै बसा हुआ हूँ। पर तुम साधू होकर भी नही जान पाये और अपने हीं किसी अहंकार में अपने प्राण गँवा बैठे।

मित्रों हमारे जीवन में भी ईश्वर अक्सर ऐसे ही अवसर रूप में आता हैं। पर अहंकार वश हम ईश्वर द्वारा दिए इन "अवसरों" को जीवनभर पहचान नही पाते और इसी कारण परिस्थितियों के शिकार होते रहते हैं। इसलिये मित्रोंशत्रु नहीं संदेश है ये, पहचानो संकेतजान सको तो जानलो, चुके होगी देर ।। मित्रों ऐसे ही गुरु शब्दों को लेकर भी ईश्वर बार-बार हमारे जीवन में आता रहता हैं। पर हम उसे भी साधारण पुरुष समझ कर अनदेखा कर देते है।
अरे मेरे भाई पहचानो उसको... 
ईश्वर रूप गुरु रो धरेऔर कदेई संत बण आ जाय
और एक सत्संग रे रूप मेंजट कृपा कर जाय।। 

राधे-राधे...

मन्त्र शक्ति का विज्ञान


कहते हैं मंत्र जपने से मनवांछित फलों की प्राप्ति होती हैं, सिद्धियाँ मिलती हैं, मनो कामनाएँ पूर्ण होती हैं इत्यादि-वित्यादि। मंत्रो को लेकर सभी लोगों की अलग-अलग धारणाएँ हैं। आम तौर पर सुनने में आता हैं की मंत्रो के माध्यम से निकलने वाली ध्वनि की तरंगो से सकारात्मक ऊर्जा निकलती हैं जिससे आस-पास का वातावरण शुद्ध होता हैं। हाँ यह बात वैज्ञानिक तौर पर भी सत्य साबित हो चुकी हैं कि मंत्रो से सकारत्मक ऊर्जा प्रवाहित होती हैं ।

पर क्यों सकारत्मक ऊर्जा प्रवाहित होती हैं ?
आखिर इसके गर्भ में हैं क्या ?

आइये मित्रों मेरी नजर में इनके पीछे क्या सिद्धांत काम करता हैं, समझने का प्रयास करते हैं।

मित्रों मंत्रों की सारी सफलता हमारे अवचेतन मन पर निर्भर होती है। संसार के सारे मंत्र चाहे जिस भाषा के भी हों, वे सभी अवचेतन मन के कारण ही काम करते हैं। आप किसी भाषा में मंत्र या प्रार्थना इत्यादि का जाप कर लें, उससे कोई फर्क नहीं पड़ता। भाषा मात्र चेतन मन तक ही प्रभाव डालती हैं। गहरे में जो हमारे अंतर्मन का भाव होता है, अवचेतन मन उसी भाव से प्रभावित होकर उसे सच मानकर ठीक वैसी ही ऊर्जा को ब्रम्हांड से आकर्षित करने लग जाता है। आपके अंतर्मन में ऐसा हैं की फलां मंत्र या शब्द को जपने से सकारात्मक ऊर्जा प्राप्त होगी... तो ऐसा ही होगा। उस मंत्र या शब्द से सकारात्मक ऊर्जा ही निकलेगी। क्योंकि आपके अंतर्मन की प्रोग्रामिंग में इस बात को प्रोग्राम कर दिया जाता हैं, जिस कारण आपकी सोच या विचारों का प्रवाह सकारात्मकता की और हो जाता हैं।

मित्रों अक्सर हम सुनते हैं कि शब्द ब्रम्ह हैं,
शब्दों में बहुत शक्ति होती हैं। हाँ ये बात एक सीमा तक सत्य हैं। पर असलियत में शक्ति शब्द में नही बल्कि उसके अर्थ में होती हैं। आपका अवचेतन मन किसी शब्द का जैसा अर्थ जानता हैं वैसी ही ऊर्जा का संचार होता हैं। भगवान् शब्दों को नही सुनते बल्कि शब्दों के पीछे आपका भाव क्या हैं उसे सुनते हैं। आप क्या सोचते हैं कि हिन्दू धर्म में भगवान् मंत्रों को सुनकर फल देते हैं, और मुस्लिम धर्म में नमाज पढ़ने के बाद फल देते हैं, या क्रिश्चन धर्म में प्रार्थना सुनकर फल देते हैं। नही ऐसा नही हैं, ये तो सभी धर्मो में ईश्वर से जुड़ने के अपने-अपने तरीके बनाये हुए हैं। और बचपन से आपकी मानसिक प्रोग्रामिंग जैसी कर दी जाती हैं वैसे ही आपके भाव बन जाते हैं।

मित्रों शब्दों या भाषा में कोई शक्ति नहीं होती, शक्ति तो मन के भावों में होती हैं। इसलिए हर धर्म के, हर भाषा के, हर मंत्र काम करते नजर आते हैं। अगर बचपन में आपकी मानसिक प्रोग्रामिंग में लड्डू को मनोकामना पूर्ति करने वाला भगवान बता दिया जाता तो आप अगर लड्डू-लड्डू जपते तो भी ‘लड्डू’ शब्द भी वही काम कर करता जो ‘राम-राम’ या ‘अल्लाह-अल्लाह’ शब्द काम करता है। मित्रों हर धर्म के अलग-अलग भगवानों के नाम आपके अंतर्मन की स्वीकृति एवं श्रद्धा के कारण ही काम करते नजर आते हैं। अगर आप किसी भी मंत्र या भगवान को सिर्फ चेतन मन से जपते हैं या मानते हैं तो उसका कोई भी प्रभाव अवचेतन मन पर नहीं पड़ता। सारी साधनाएं, सारी सिद्धियां, सारी सफलताएं, उपलब्धियां अवचेतन मन के कारण होती हैं, जिसे हम ईश्वर की कृपा जैसे शब्दों से अलंकृत कर दिल को तसल्ली दे देते हैं।

अंत में मैं इतना कहूँगा कि सारी की सारी बातें इस अंतर्मन मन के कारण हैं। जीवन के सारे सुख-दुःख इसी अंतर्मन की प्रोग्रामिंग के कारण हैं। मैं ये नही कहता की आप मंत्रो के जाप या प्रार्थनाएँ या अन्य कोई धार्मिक अनुष्ठान ना करें। बल्कि में ये चाहता हूँ की आप मंत्र इत्यादि के जाप से पहले उनके पूर्ण अर्थ को समझलें। मंत्र का अर्थ अपनी भाषा में समझ लेने से उस मंत्र के प्रति आपके अवचेतन मन का भाव और भी पुष्ट हो जायेगा, जिससे आप शीघ्र ही श्रेष्ठ परिणामों को प्राप्त कर पायेंगे।

राधे-राधे...

Astrologer & Philosopher
Gopal Arora

क्यों सात बार राई वारने से उतर जाती हैं नजर ?


क्यों सात बार राई वारने से उतर जाती हैं नजर ?

मित्रों अक्सर हम सुनते है कि जब किसी को नजर लग जाती है तो उसे कहते हैं कि अपनी मुट्ठी में राई लेकर अपने सिर से सात बार वार कर फेंक दो। क्या राई को सात बार वार देने क्या नजर उतर सकती हैं ? आइये इसके पीछे क्या विज्ञान काम करता हैं समझने का प्रयास करते हैं।

मित्रों अक्सर आप देखते होंगे की राई को जब किसी प्लास्टिक बेग से निकालते हैं तो राई उस प्लाष्टिक बेग से चिपक जाती हैं। वो इसलिये कि राई में चुम्बकीय गुण विद्धमान होता हैं। और राई को बेग से निकालते वक्त घर्षण से उसका चुम्बकीय गुण सक्रीय हो जाता हैं।

अब जब इसे सात बार हमारे शरीर पर से वारा जाता हैं तब इसका संपर्क हमारे शरीर के सात रंग वाले आभामंडल से होता हैं, जिसे हम सुरक्षा चक्र भी कहते हैं। राई के लगातार हमारे आभामंडल से टकराने से इसका चुम्बकीय गुण सक्रीय होकर हमारे शरीर के सातों चक्रों में फैली नकारात्मकता को सोख लेता हैं। सात बार वारने का मतलब हमारे सूक्ष्म शरीर के सातों चक्रों का शुद्धिकरण करना होता हैं। सात बार राई को वारने के बाद उसे घर से कुछ दूर नाली में फेंक दिया जाता हैं।

वैसे आभामंडल के बारे में बहुत कम लोग जानते हैं। इसके लिए साधारण तौर पर इतना बता देता हूँ कि आभामंडल हमारे शरीर का सुरक्षा चक्र होता हैं। जब ज्योतिष शास्त्र के अनुसार अच्छी-बुरी दशा चलती हैं तो उसका सबसे पहला प्रभाव हमारे आभामंडल पर ही पड़ता हैं। पर अगर हम किसी अच्छी संगत, अच्छे विचार या किसी ज्ञानी गुरु के संपर्क में हो या किसी भगवान् में हमारी आस्था बहुत मजबूत हो तो ग्रहों के बुरे प्रभाव की रश्मियाँ हमारे उस आभामंडल यानी सुरक्षा चक्र का भेदन करने में कामयाब नही होती। इसलिए जो लोग निरंतर सत्संग करते हैं, सकारात्मक विचारों के संपर्क में रहते हैं ऐसे पुण्यशाली लोगों पर ग्रहों, टोने-टोटके और नजर इत्यादि का बुरा प्रभाव आसानी से नही पड़ता। और न ही कोई नकारात्मकता उनके आभामंडल को भेद पाती हैं।

मित्रों ऐसे कई सारे टोटके इत्यादि है जिन्हें हम अंधविश्वास का नाम देकर नजर अंदाज कर देते हैं। क्योंकि हमें इनके गर्भ में छूपे सिद्धांत का पता नहीं होता। अंधविश्वास क्या हैं ?
"अंधे का विश्वास"
यानी अँधा होकर विश्वास कर लेना। और एक अंधे आदमी का विश्वास इतना मजबूत होता हैं कि वो अपने उसी विश्वास के सहारे अंधा होते हुए भी कभी ठोकर नही खाता, बल्कि ठोकर तो हम आँख वाले खा जाते हैं पर वे कभी नही खाते। क्या आपने कभी सुना हैं कि कोई अँधा व्यक्ति एक्सिडेंट से मर गया ???

मित्रों में ये नही कहता कि आप ऐसी हर बात को बिना किसी तर्क के अपना लें। बल्कि मैं तो ये चाहता हूँ कि ऐसी हर बात के पीछे छुपे विज्ञान को समझकर इनका उपयोग करें। वैसे मित्रों कलयुग के चलते सदियों से चलती परम्पराओं के साथ आजकल कुछ बेतुके अंधविश्वासों का जन्म भी हो गया हैं जिनसे हमें सावधान रहने की जरुरत हैं। बिना वैज्ञानिक अर्थ के किसी बात को मान लेना मात्र मूर्खता के अलावा और कुछ नहीं।

राधे-राधे...

Astrologer & Philosopher
Gopal Arora

क्या विज्ञान छुपा हैं उपवास या व्रत ईत्यादि के पीछे।


उपवास, व्रत इत्यादि क्या हैं ?
उपवास या व्रत क्यों करवाये जाते हैं ?
क्या उपवास करने से मनोवांछित फल प्राप्त होते हैं ?

जी हाँ बिल्कुल हमारे धर्म-ग्रंथो में जितनी भी परम्पराएँ बनी हैं, उनको करने से मनोवांछित फलों की प्राप्ति होती हैं, ऐसा शास्त्रों में भी बताया गया हैं। पर किसी को फल जल्दी मिलते हैं, किसी को देरी से और किसी को नही भी मिलते हैं।

ऐसा क्यों ?

मित्रों हमारे धर्म ग्रंथो में जितनी भी परम्पराएँ बनी हैं उस हर परम्परा के पीछे एक ही विज्ञान काम कर रहा हैं,
एक ही सिद्धांत काम कर रहा हैं।

जो लोग इस सिद्धांत की "कसौटी" पर खरा नही उतर पाते वे मनवांछित फलों से वंचित रह जाते हैं,
या जो जितने समय में उस "कसौटी" पर खरा उतर जाता हैं वो उतने समय बाद ही मनोवांछित फल प्राप्त करता हैं।

अब चाहे वो व्रत हो, उपवास हो, आरती हो, स्तुति हो, यज्ञ-हवन या मन्त्र जाप इत्यादि कुछ भी हो। इन सभी के सभी कर्मो में पीछे एक ही विज्ञान एक ही सिद्धांत काम कर रहा हैं।

""""""ध्यान""""""

मित्रों हर कर्म के द्वारा आपके "ध्यान" को एक लक्ष्य से निरंतर जुड़े रहने का मात्र एक प्रयोजन किया जा रहा हैं। ये व्रत, आरती, स्तुति, यज्ञ, हवन, पूजा-पाठ या मंदिर की फेरी इत्यादि सभी कर्म मात्र माध्यम हैं आपके "ध्यान" को एकाग्र कर, "फल" तक पहुंचाने के। कर्म मात्र साधन है फल तक पहुँचने का, बाकी फल का निर्धारण तो भाव से होता हैं कि आपने किस भाव से व्रत इत्यादि किया हैं।

अगर व्रत इत्यादि कर्म से किसी का भला होता तो आज भिखारी सबसे धनवान होते। उन बेचारों के तो उपवास कभी-कभी पाँच-पाँच दिनों के हो जाते हैं। पर उन्हें ना तो वैभव-लक्ष्मी के व्रत का फल मिलता हैं और ना ही करवा-चौथ के व्रत का फल मिलता हैं। क्योंकि... उनके उपवास के पीछे उनका ""ध्यान"" किसी भी भाव से जुड़ा नही होता हैं।

इसके बावजूत जब हम कोई व्रत करते हैं तो हमारा ध्यान उस व्रत से मिलने वाले परिणाम की और कर दिया जाता हैं, जो हमें कथा-कहानियों के माध्यम से बताया जाता हैं। इन परम्पराओं से जुड़ी हुई कथा-कहानियें भी और कुछ नही, बस ये सब हमारे मानसिक भाव को गहरा और पुष्ट करने की एक प्रोग्रामिंग लेंग्वेज हैं, और कुछ नही।

मित्रों वैसे तो हर व्यक्ति का ध्यान जीवन भर अच्छे परिणामों को पाने की और ही रहता हैं। परन्तु फिर भी अधिकतर लोग उच्च परिणामों को पाने से वंचित रह जाते हैं। क्योंकि वे ध्यान के विज्ञान की इस कसौटी पर खरा नही उतर पाते। उनका ध्यान इतना  "गहरा" नही होता जितना होना चाहिये। ध्यान और उस ध्यान के प्रति विश्वास जितना गहरा होगा उतना ही हम ध्यान की कसौटी पर खरा उतर पायेंगे और शीघ्र ही मनोवांछित फलों को प्राप्त कर पायेंगे। इसलिये कहते हैं कि व्रत, उपवास, मन्त्र इत्यादि परम्पराओ में या ईश्वर में श्रद्धा और विश्वास मजबूत होना चाहिये। मित्रों किसी ने सत्य ही कहा हैं कि...

किसी चीज को सिद्दत से चाहो
तो सारी कायनात तुम्हे उसे मिलाने में लग जाती हैं।

इसलिये मित्रों आप जो भी व्रत, उपवास, पूजा-पाठ, हवन, मन्त्र या मंदिर की फेरी इत्यादि जो भी करते हैं उन्हें पूरे श्रद्धा-भाव के साथ कीजिये। यानी आपको उस गहरे विश्वास के साथ उस "ध्यान" रूपी सिद्धांत की कसौटी पर खरा उतरना हैं। व्रत इत्यादि के प्रति आपका ध्यान और विश्वास जितना गहरा होगा उतनी ही जल्दी आपको परिणामों की प्राप्ति होगी।

मित्रों इस मन का विज्ञान ये हैं कि ये मन "ऊर्जावान" हैं। इसको आत्मा... और आत्मा से ऊपर परमात्मा से "ऊर्जा" प्राप्त होती हैं। मन का "ध्यान" जिस और होता हैं, ऊर्जा का प्रवाह भी उसी और होने लगता हैं। और कर्म करते समय मन में जैसा भाव रखकर कर्म किया जाता हैं ऊर्जा का प्रवाह भी मन में रखे भाव की तरफ बहने लगता हैं, और वही ऊर्जा आपको उस लक्ष्य तक पहुंचा देती हैं। या इस सिद्धांत की भाषा में कहूँ तो वो लक्ष्य स्वयं आप तक पहुँच जाता हैं।

मित्रों इस मन की माया बड़ी निराली हैं, इसके रहस्य बड़े गहरे हैं। और जो इस सिद्धांत को समझ जाता हैं, इसकी प्रकृति(नेचर) को समझ जाता हैं फिर उससे संसार की कोई चीज अछुती नही रह सकती।

राधे-राधे...

कभी-कभी ऐसा भी होता हैं कि.. ईश्वर हमारी प्रार्थना सुनते हुए भी फल नही देता।


कभी-कभी ऐसा भी होता हैं कि..
ईश्वर हमारी प्रार्थना सुनते हुए भी फल नही देता।

क्यों ?

मित्रों एक बार एक भिखारी एक सेठ के घर के बाहर खड़ा होकर भजन गा रहा था और बदले में खाने को रोटी मांग रहा था। सेठानी काफ़ी देर से उसको कह रही थी "रुको आ रही हूँ"। रोटी हाथ मे थी पर फ़िर भी कह रही थी की रुको आ रही हूँ। भिखारी भजन गा रहा था और रोटी मांग रहा था। सेठ ये सब देख रहा था पर समझनही पा रहा था कि उसकी पत्नी ऐसा क्यूँ कर रही हैं।

पर आखिरकार सेठ अपनी पत्नी से बोल ही डाला कि...

"भागवान रोटी हाथ मे लेकर खडी हो, वो बाहर मांग रहा हैं। उसे बार-बार कह रही हो आ रही हूँ, आ रही हूँ, तो उसे रोटी दे क्यों नही देती".?

सेठानी बोली :-
"हाँ रोटी दे दुंगी पर क्या है ना की मुझे उसका भजन बहुत प्यारा लग रहा हैं। अगर उसको अभी रोटी दे दुंगी तो वो आगे चला जायेगा, मुझे उसका भजन और सुनना हैं"।

मित्रों अक्सर हमारे साथ भी कुछ ऐसा ही होता हैं।
यदि हमारी प्रार्थना के बाद भी भगवान हमारी प्रार्थना नही सुन रहे हैं तो हमे यह समझना चाहिए की उस सेठानी की तरह प्रभु को भी आपकी प्रार्थना प्यारी लग रही हैं, इसलिये मित्रों इंतज़ार करो और प्रार्थना करते रहो, परमात्मा फल हाथ में लेके खड़ा हैं।

राधे-राधे...

मन की चमत्कारी शक्ति और उसके पीछे छुपा विज्ञान


मन की चमत्कारी शक्ति...
और उसके पीछे छुपा विज्ञान...

मित्रों सारा का सारा खेल मन का हैं, ये मन ऊर्जावान हैं और इसको आत्मा के द्वारा परमात्मा से ऊर्जा मिलती हैं। इस मन का ध्यान जिस विषय की और होता हैं, ऊर्जा का खर्च भी उधर ही होता हैं। पर हमारा जो मन हैं ना, उसका ध्यान कभी भी एक तरफ नही होता। दिनभर हजारों बाते हमारे मस्तिष्क में चल रही होती हैं, जिस कारण मन की ऊर्जा भी उन सभी बातों में बँट जाती हैं।

जैसे आप गैस के चुल्हे पर एक भगोने में पानी गर्म करते हैं, और उसी चुल्हे के दूसरे बर्नर पर सब्जी बना रहे हैं, और तीसरे बर्नर पर चाय बना रहे हैं, तो ऐसा करने से ऊर्जा इन सभी जगहों में बँट गई, जिस कारण इन तीनों बर्नरों में ऊर्जा की कमी हो जाती हैं जिसके चलते न तो समय पर पानी गर्म हो पाता हैं और ना ही सब्जी बन पाती हैं, और चाय भी देरी से बनती हैं। बस मित्रों हमारे जीवन में भी कुछ ऐसा ही होता हैं। हम हमारे मन के ध्यान को हजारों बातों में लगाये रहते हैं, जिससे ईश्वर द्वारा मिली इस अनमोल ऊर्जा का व्यर्थ में व्यय हो जाता हैं। हम लोग संसार की व्यर्थ-बातों में इस ऊर्जा का व्यय करते रहते हैं। पर अगर इस ऊर्जा का व्यर्थ में व्यय होना बंद हो जाये तो यह ऊर्जा धीरे-धीरे हमारे में संचित होती रहती हैं। और इसी संचित ऊर्जा से हमारे शरीर के चारों तरफ जो आभामंडल होता है इसका विकास होने लगता हैं। जिससे हमारे अंदर आकर्षण शक्ति बढ़ जाती हैं। और अपने चारों तरफ रहने वाले लोगों पर हमारा प्रभाव बढ़ने लगता हैं।

मित्रों ध्यान लगाने के पीछे भी यही प्रयोजन होता हैं कि आपके मन का ध्यान व्यर्थ की बातों से हटाया जाये और उसे परमात्मा से जोड़ दिया जाए। लगातर 3 महीने तक रोज 10 मिनिट ध्यान लगाने के बाद इसके परिणाम सामने आने लगते हैं। इसके चलते हमारी मानसिक शक्ति का विकास होने लगता हैं। और हम लोगों से वे-वे कार्य होने लगते हैं, जिन्हें लोग चमत्कार इत्यादि कहते हैं। मित्रो इसलिये संसार की व्यर्थ की बातों से ध्यान हटाओ और अपना ध्यान अपने लक्ष्य पर केंद्रित करो।

इस ध्यान के बारे मैं एक हैरान कर देने वाली बात और बताता हूँ।

अक्सर स्त्रियाँ तांत्रिकों इत्यादि के पास जाती हैं और बोलती हैं कि मेरी सास मुझसे बहुत झगड़ती हैं, इसलिये उसे वश में करने का टोटका बताओ। ऐसे में वो तांत्रिक उसे अपने हवन की राख यानी "भभूति" देता हैं, और बोलता हैं कि बेटा इस भभूति को 45 दिन तक लगातार अपनी सास को रोटी में मिलाकर खिलाना तेरी सास तेरे वश में हो जायेगी। बस फिर क्या जब वो स्त्री जब सुबह-शाम खाना बनाती हैं तब भभूति मिली रोटी बनाते समय उसके मन का """ध्यान""" एक ही दिशा में होता हैं कि
"अब मेरी सास मेरे वश में हो जायेगी"
"अब मेरी सास मेरे वश में हो जायेगी"।
और इसके चलते पूरे दिन उसके मन का ध्यान इस और केंद्रित हो जाता हैं जिससे उसकी सास उसके वश में भी हो जाती हैं।

अब उसकी सास उसके वश में कैसे हो गई ?
क्या ये कोई चमत्कार हैं ?

नही दोस्तों इसमें कोई चमत्कार नही, बल्कि चमत्कार तो हमारे अंदर ही हैं। होता यूँ हैं कि जब उसकी सास, उससे झगड़ती थी तब उस स्त्री का ध्यान सास की बातों में चला जाता, जिसके चलते Action का Reaction होता। पर इस टोटके के चलते स्त्री का ध्यान अपनी सास की बातों पर तो जाता नही था, उसका तो ध्यान बस एक ही और था कि  "मेरी सास मेरे वश में हो जायेगी".... "मेरी सास मेरे वश में हो जायेगी"।
बस इसके चलते उस स्त्री के स्वयं के ध्यान की दिशा बदल गई यानी उसका ध्यान अपनी सास की बातों से हट गया। उधर उसकी सास भी 10-15 दिनों में थक गई, क्योंकि उसके Action का कोई Reaction नही मिलता, तो धीरे-धीरे उसका भी स्वभाव बदल गया।

दिशा बदली और दशा बदल गई।

बस फिर क्या टोटका काम कर गया और जिसने बताया वो चमत्कारी हो गया।

पर दोस्तों मेरे द्वारा इतना बता देने के बाद भी आपको इस बात पर विश्वास नही हो सकता, कि ऐसा कैसे हो सकता हैं? पर सत्य तो यही हैं कि इसके पीछे यही विज्ञान काम करता हैं। पर आप बिना भभूति या और किसी तांत्रिक क्रिया के बिना विश्वास में नही आ सकते और अपने ध्यान की दिशा को नही बदल सकते इसलिए टोटकों इत्यादि में ऐसी-ऐसी विधियों को उपयोग में लाया जाता हैं।

बात छोटी सी हैं पर हमारे इतने मोटे दिमाग में पचती नही, इसलिये भभूति-वभूति जैसी चीजों के सहारे आपके ध्यान को "बाँधा" जाता हैं। अक्सर सुनते हो ना की फलाने को बाँध दिया या इसकी दूकान को बाँध दि इत्यादि-वित्यादि। बस इन सभी क्रियाओं के पीछे "ध्यान" की शक्ति ही तो काम कर रही होती हैं।

ध्यान पर जापान में बहुत शोध हुआ, और देखों आज जापान तकनिकी के मामले में सबसे आगे हैं। एक्यू प्रेशर की पद्धति को ही देख लो, उसमे कहते हैं कि 3 महीने तक रोज 10 मिनिट अपने दोनों हाथों के नाखूनों को आपस में रगड़ो, ऐसा करने से आपके बाल घने और काले हो जाएँगे। और ऐसा होता भी हैं मैंने स्वयं ने देखा हैं। अब नाखूनों को आपस में रगड़ने से आम तौर पर तो ऐसा कुछ नही होता, पर इसके पीछे विज्ञान "ध्यान" वाला ही काम कर रहा हैं।

अब आप कहेंगे कि मेरा ध्यान तो हमेशा धनवान बनने का लगा रहता हैं, पर धनवान होता तो नहीं... ऐसा क्यों ???

ऐसा इसलिये की पहले तो हमारे ध्यान की ऊर्जा का व्यय दुनियादारी की फालतू बातों हो जाता हैं, और थोड़ी बहुत ऊर्जा मन के पास बचती भी हैं तो हम लगातार किसी एक बात पर ध्यान लगा नही पाते। यानी किसी एक विचार को पूर्ण ऊर्जा न देने के कारण हम परिणामों को प्राप्त नही कर पाते !

राधे-राधे...

कैसे लोगों की एनर्जी चुरा कर आप भी जीवन की ऊँचाइयों को छू सकते हैं।

कैसे लोगों की एनर्जी चुराकर आप भी जीवन की उंचाईयों को छू सकते हैं।

आइये मित्रों इस रहस्य को समझते हैं।

मित्रों अभी कुछ समय पहले मैंने अपने एक लेख में लिखा कि "भगवान् मूर्ती में नही बल्कि आपके मन में होते हैं, और आपके ही मन से "ध्यान" की ऊर्जा पाकर एक पत्थर भी भगवान् बन जाता हैं।

मित्रों "दर्शन-शास्त्र" से जुड़ने के बाद मैंने यह पाया कि संसार में आज हमारे साथ जो कुछ भी हो रहा हैं वो हमारे मन के "ध्यान"  की वजह से हो रहा हैं। मन ऊर्जावान हैं और इसको क्रमश: आत्मा और परमात्मा से ऊर्जा प्राप्त होती हैं, और इस मन का निरंतर ध्यान जिस भाव के साथ जिस विषय पर होता हैं, वैसी ही ऊर्जा का प्रवाह उधर होने लगता हैं।

मित्रों जैसे भगवान् "राम" की मूर्ती को देखते समय आपके मन में या भाव होता हैं कि ये भगवान् हैं, जो हमारा कल्याण करते हैं। और ये ही नही मित्रों भगवान् "राम" का नाम लेते ही उनसे जुड़े सभी तथ्य हमारे अवचेतन मन से निकलकर चेतन मन पर उजागर हो जाते हैं। मित्रों यह प्रक्रिया तत्काल प्रभाव से स्वत: ही संपन्न होती हैं और इसके चलते आपके मन के इन्ही भावों के साथ आपका "ध्यान" उस मूर्ती पर बनता हैं। और आपका ध्यान जैसे भाव के साथ होता है वैसी ही ऊर्जा का प्रवाह उस मूर्ती की और हो जाता हैं जिसके चलते उस मूर्ती के चारों और वैसा ही "चुम्बकीय-क्षेत्र" यानी आभामंडल तैयार होता हैं। और जितने अधिक लोगों का ध्यान उस भाव के साथ उस मूर्ती पर होता हैं उसका आभामंडल उतना ही कल्याणकारी और शक्तिशाली होता जाता हैं।

मित्रों हमारे मन से ये जो ऊर्जा (Magnetic Waves) निकलती हैं, उसे हम खुली आँखों से नही देख सकते। पर मन से ऊर्जा निकलती हैं ये ही सत्य हैं। आपने "नजर" लगने के बारे में तो सुना ही होगा। हालाँकि नजर तो सबकी एक जैसी ही होती हैं, दिखता तो सबको एक जैसा ही है। नजर ना तो अच्छी होती हैं और ना ही बुरी होती हैं। बस हर नजर के पीछे अच्छा-बुरा भाव जुड़ा होता हैं। किसी ने आपको बुरी नजर से देखा तो उसके मन से निकली नकारात्मक ऊर्जा आपके आभामंडल को खंडित करती हैं, और अच्छे भाव से आपको देखा तो आपका आभामंडल सकारात्मक ऊर्जा से पोषित होता हैं।

मित्रों जब एक पत्थर मूर्ती, लोगों के ध्यान की ऊर्जा पाकर भगवान् बन सकती हैं, या लोगों की अच्छी-बुरी नजर आपको प्रभावित कर सकती हैं, तो लोगों के ध्यान की यही ऊर्जा आपको महान भी तो बना सकती हैं।

पर कैसे ???    आसान हैं दोस्तों...

बस आपको लोगों के समक्ष स्वयं को एक बेहतर इंसान के रूप में प्रस्तुत करना हैं, किसी के भी मन में आपके प्रति किसी भी प्रकार का बुरा भाव ना रहे, ऐसा बनना हैं। लोगों का ध्यान आप पर जितना अच्छा होगा उतना ही उनकी सकारात्मक ऊर्जा से आपका आभामंडल पोषित होगा।

मित्रों अगर आपका स्वभाव घमण्डी किस्म का हैं, तो मान के चलिये आपका घमण्ड चूर-चूर होने वाला हैं।
क्यों ?
क्योंकि जिन लोगों का स्वभाव घमण्डी होता हैं, उनके प्रति लोगों का भाव ये बनता हैं कि "भगवान् इसका घमण्ड चूर-चूर कर देगा"। बस मित्रों लोगों के इसी ध्यान के चलते ब्रह्माण्ड में आपके घमण्ड को चूर-चूर करने की प्रक्रिया प्रारम्भ हो जाती हैं जिसके चलते आपका ऐसी समस्या से सामना होता हैं जो आपके घमण्ड को चूर-चूर कर देती हैं।

मित्रों आप जो भी काम करते हो उस काम की सफलता-असफलता का पता लगाना हैं तो लोगों के नेचर को पकड़ना सीखो, कि आपके इस काम के प्रति लोगों का भाव कैसा हैं। आपके काम के प्रति अधिकतर लोगों की क्या भावना हैं। बस अगर आपने "नेचर" को समझना सिख लिया तो दुनिया में आपसे कोई चीज अछूती ना रहेगी।

मित्रों आप आज ये बात भलीभाँति समझ लीजिये कि आज लोगों का जैसा ध्यान आप पर हैं, उनके ध्यान की ऊर्जा पाकर आप वैसे ही परिणामों को प्राप्त होंगे। यह ईश्वरीय कार्यप्रणाली का ही एक हिस्सा हैं जो लोगों के ध्यान के जरिये आप ही के स्वभावनुसार आपको फल तक पहुंचाता हैं।

अब अगर आप धनवान बनना चाहते हैं तो अपने और अपने परिवार वालों का रहन-सहन और व्यवहार ऐसा बनाइये की लोगों को लगे की आपका परिवार धनवान और संपन्न हैं। लोगों के लगातार ऐसे ध्यान के चलते उनके मन से निकली वैसी ही ऊर्जा आपको उस परिणाम तक पहुँचा देगी। पर मित्रों ये प्रक्रिया धीरे-धीरे प्रारम्भ करें। और इसमें लोगों को ऐसा भी ना लगे की आप दिखावा कर रहे हैं, नही तो उनका ध्यान अगर ऐसा बन गया की आप दिखावा कर रहे हैं, तो आप जीवन भर दिखावा ही करते रह जायेंगे।

तो मित्रों इसे कहते हैं लोगों की ऊर्जा को चुरा कर जीवन की ऊंचाइयों को छूना।

मित्रों बड़े-बड़े फिलोसॉफर अपने इसी ज्ञान के सहारे लोगों की एनर्जी चुरा कर अपने अलग-अलग पंथ बनाकर अमर हो गये। और आज भी इस फिलोसोफी को समझने वाले बड़े-बड़े गुरु लोग, लोगों को सम्मोहित कर अपने समागम द्वारा हजारों लोगों के ध्यान को अपनी और आकर्षित कर अपना नाम कमा रहे हैं।

आइये दोस्तों आज ही अपने स्वभाव में परिवर्तन की शुरुआत कर, एक सुन्दर जीवन की और कदम बढाइये।

सुनहरा भविष्य आपका इन्तजार कर रहा हैं।

Good Luck...

राधे-राधे...


15 मार्च 2015

Astrology is Indicate Since Not a Predict Since

मित्रों सुकरात का नाम तो आपने सुना होगा। सुकरात विश्व के महानतम "दार्शनिकों" (Philosopher) में से एक थे। एक दिन सुकरात एक बार अपने शिष्यों के साथ बैठे कुछ चर्चा कर रहे थे, तभी वहां अजीबो-गरीब वस्त्र पहने एक ज्योतिषी आ पहुंचा।

वह सबका ध्यान अपनी ओर आकर्षित करते हुए बोला,
"मैं ज्ञानी हूँ,
मैं किसी का चेहरा देखकर उसका चरित्र बता सकता हूँ।
बताओ तुममें से कौन मेरी इस विद्या को परखना चाहेगा ?”

सभी शिष्य सुकरात की तरफ देखने लगे।

सुकरात ने उस ज्योतिषी से कहा कि ठीक हैं आप मेरे बारे में ही कुछ बता दो।

अब वह ज्योतिषी उन्हें ध्यान से देखने लगा।

सुकरात बहुत बड़े ज्ञानी तो थे, लेकिन देखने में बड़े सामान्य थे, और उन्हें कुरूप कहना कोई अतिश्योक्ति न थी।

ज्योतिषी उन्हें कुछ देर निहारने के बाद बोला,
"तुम्हारे चेहरे की बनावट बताती है कि तुम सत्ता के विरोधी हो, तुम्हारे अंदर विद्रोह करने की भावना प्रबल है। तुम्हारी आँखों के बीच पड़ी सिकुड़न तुम्हारे अत्यंत क्रोधी होने का प्रमाण देती हैं"

मित्रों, ज्योतिषी ने अभी इतना ही कहा था कि वहां बैठे शिष्य अपने गुरु के बारे में ये बातें सुनकर गुस्से में आ गए और उस ज्योतिषी को तुरंत वहां से जाने के लिए कहा।

पर सुकरात ने उन्हें शांत करते हुए ज्योतिषी को अपनी बात पूर्ण करने के लिए कहा।

ज्योतिषी बोला, "तुम्हारा बेडौल सिर और माथे से पता चलता है कि तुम एक लालची व्यक्ति भी हो, और तुम्हारी ठुड्डी की बनावट तुम्हारे सनकी होने के तरफ इशारा करती है।”

इतना सुनकर शिष्य और भी क्रोधित हो गए पर...  इसके उलट सुकरात प्रसन्न हो गए और ज्योतिषी को इनाम देकर विदा किया। शिष्य सुकरात के इस व्यवहार से आश्चर्य में पड़ गए और उनसे पूछा,  "गुरूजी,  आपने उस ज्योतिषी को इनाम क्यों दिया, जबकि उसने जो कुछ भी कहाँ वो सब गलत है ?”

सुकरात ने शिष्यों से कहा...

नहीं पुत्रों, ज्योतिषी ने जो कुछ भी कहा वो सब सच था, उसके बताये सारे दोष मुझमें हैं, मुझमें लालच है , क्रोध है , और उसने जो कुछ भी कहा वो सब है। वो अपने ज्योतिषीय विज्ञान पर खरा उत्तर हैं। पर उसने एक बात पर विचार नही किया कि मनुष्य जीवन "कर्म-प्रधान" हैं,जिसमे विचारों की दशा बदल कर व्यक्ति अपने भाग्य को बदल सकता हैं।

उसने सिर्फ ग्रहों इत्यादि की गणना मात्र से आँकलन किया हैं, पर "कर्म-सिद्धांत" के अधूरे ज्ञान के कारण  उसकी पारखी नजर मेरे अंदर के विवेक को नही आंक पाई, जिसके बल पर मैं इन सारी बुराइयों को अपने वष में किये रहता हूँ, बस वह यहीं चूक गया, वह मेरे बुद्धि के बल को नहीं समझ पाया !” , सुकरात ने अपनी बात पूर्ण की।

मित्रों , यह प्रेरक प्रसंग यह बताता है कि बड़े से बड़े इंसान में भी कमियां हो सकती हैं, पर यदि हम अपनी बुद्धि का प्रयोग करें तो सुकरात की तरह ही उन कमियों से पार पा सकते हैं।

एक बात और ज्योतिष मात्र एक संकेत-विज्ञान हैं

Astrology is Indicate Since
Not a Predict Since

राधे-राधे...

मंत्र जाप में अशुद्ध उच्चारण का प्रभाव

मित्रों कई बार मानव अपने जीवन में आ रहे दुःख ओर संकटो से मुक्ति पाने के लिये किसी विशेष मन्त्र का जाप करता है, लेकिन मन्त्र का बिल्कुल शुद्ध उच्चारण करना एक आम व्यक्ति के लिये संभव नहीं, जिसके चलते हमे उस अशुद्ध मन्त्र जाप के दुखद परिणाम भी भोगने पड़ जाते हैं !
मित्रों अक्सर हम जैसे लोग ही कहा करते है कि देवता भक्त का भाव देखते है वो शुद्धि अशुद्धि पर ध्यान नही देते है, पर हमारा ऐसा कहना एक सीमा तक ठीक है। जब हम ईश्वर कि भक्ति में कोई कर्म करते हैं तो ईश्वर हमारे भाव देखते हैं, शब्द नहीं ! परन्तु जब हम कोई मन्त्र अनुष्ठान ईत्यादी अन्य कर्म हमारी किसी कामना प्राप्ति के लिए करते हैं तो यहाँ कुछ परिवर्तन हो जाता हैं!

मित्रों इस संबंध में प्रमाण ये है कि  "मूर्खो वदति विष्णाय, ज्ञानी वदति विष्णवे।"
भावार्थ:-- मूर्ख व्यक्ति "" ऊँ विष्णाय नमः"" बोलेगा और ज्ञानी व्यक्ति "" ऊँ विष्णवे नमः"" बोलेगा
यहाँ शाब्दिक त्रुटि हुई हैं, पर फिर भी इन दोनों का पुण्य समान होगा.. क्योंकि भगवान केवल भावों को ग्रहण करने वाले है। जब कोई भक्त भगवान को निष्काम भाव से, बिना किसी स्वार्थ के याद करता है तब भगवान भक्त कि क्रिया ओर मन्त्र कि शुद्धि अशुद्धि के ऊपर ध्यान नही देते है वो केवल भक्त का भाव देखते है।

पर मित्रों जब कोई व्यक्ति अपने किसी विशेष मनोरथ को पूर्ण करने के लिये किसी मन्त्र का जाप या स्तोत्र का पाठ करता है तब सम्बन्धित देवता उस व्यक्ति कि छोटी से छोटी क्रिया ओर अशुद्ध उच्चारण पर ध्यान देते है। और जैसा वो जाप या पाठ करता है वैसा ही उसको फल प्राप्त होता है।

एक बार एक व्यक्ति कि पत्नी बीमार थी। वो व्यक्ति पंडित जी के पास गया ओर पत्नी कि बीमारी कि समस्या बताई। पंडित जी ने उस व्यक्ति को एक मन्त्र जप करने के लिये दिया । मन्त्र था  ""भार्यां रक्षतु भैरवी"" अर्थात हे भैरवी माँ मेरी पत्नी कि रक्षा करो । अब वो व्यक्ति मन्त्र लेकर घर आ गया। ओर पंडित जी के बताये मुहुर्त में जाप करने बैठ गया.. अब जब वो जाप करने लगा तो " रक्षतु" कि जगह " भक्षतु" जाप करने लगा। वो सही मन्त्र को भूल गया । " भार्यां भक्षतु भैरवी" अर्थात हे भैरवी माँ मेरी पत्नी को खा जाओ । "" भक्षण"" का अर्थ खा जाना है। अभी उसे जाप करते हुये कुछ ही समय बीता था कि बच्चो ने आकर रोते हुये बताया.. पिताजी माँ मर गई है। ऐसे में उस व्यक्ति को दुःख हुआ... साथ ही पण्डित जी पर क्रोध भी आया.. कि पंडित ने ये कैसा मन्त्र दे दिया।

कुछ दिन बाद वो व्यक्ति पण्डित जी से जाकर मिला ओर कहा कि आपके दिये हुये मन्त्र को में जप ही रहा था कि थोडी देर बाद मेरी पत्नी मर गई... पण्डित जी ने कहा.. आप मन्त्र बोलकर बताओ.. कैसे जाप किया आपने... वो व्यक्ति बोला:- "" भार्यां भक्षतु भैरवी""  पण्डित जी बोले:- तुम्हारी पत्नी मरेगी नही तो और क्या होगा। एक तो पहले ही वह मरणासन्न स्थिति में थी.. और रही सही कसर तुमने " रक्षतु" कि जगह "" भक्षतु!" जप करके पूरी कर दी.. भक्षतु का अर्थ है !" खा जाओ... मन्त्र तुमने गलत जपा और अब दोष मुझे दे रहे हो।

तब उस व्यक्ति को अपनी गलती का अहसास हुआ.. तथा उसने पण्डित जी से क्षमा माँगी ।

मित्रों इस लेख का सार यही है कि जब भी आप किसी मन्त्र का विशेष मनोरथ पूर्ण करने के लिये जप करे तब क्रिया ओर मन्त्र शुद्धि पर अवश्य ध्यान दे। अशुद्ध पढने पर मन्त्र का अनर्थ हो जायेगा... ओर मन्त्र का अनर्थ होने पर आपके जीवन में भी अनर्थ होने कि संभावना बन जायेगी। इसलिये मित्रों अगर किसी मन्त्र का शुद्ध उच्चारण आपसे नहीं हो रहा है.. तो बेहतर यही रहेगा.. कि आप उस मन्त्र के साथ छेडछाड नहीं करे, बल्कि योग्य पंडित द्वारा ही जाप करवायें।

राधे-राधे...

जब हम सब कुछ प्रभु पर छोड़ देते हैं तो वो भी अपने हिसाब से देता हैं!

 एक बार किसी देश का राजा अपनी प्रजा का हाल-चाल पूछने के लिए गावो में घूम रहा था। घूमते-घूमते उसके कुर्ते का बटन टूट गया, उसने अपने मंत्री को कहा कि पता करो की इस गांव में कौनसा दर्जी हैं जो मेरे बटन को सिल सके। मंत्री ने पता किया उस गांव में सिर्फ एक ही दर्जी था, जो कपडे सिलने का काम करता था। उस दर्जी को राजा के समाने ले जाया गया। राजा ने कहा की तुम मेरे कुर्ते का बटन सी सकते हो ? दर्जी ने कहा महाराज यह कोई मुश्किल काम थोड़े ही है। उसने मंत्री से बटन ले लिया और धागे से उसने राजा के कुर्ते का बटन फौरन टांक दिया।

राजा ने दर्जी से पूछा कि कितने पैसे दूं ? उसने कहा महाराज रहने दो छोटा सा काम ही था, राजा ने फिर से दर्जी को कहा कि नहीं-नहीं बोलो कितने दूं ? दर्जी ने सोचा की 2 रूपये मांग लेता हूँ, पर फिर मन ने यही सोच आ गयी की कही राजा यह न सोचे की बटन टांकने के मेरे से 2 रुपये ले रहा हैं। तो गाव वाले से कितना लेता होगा।

फिर कुछ सोच कर दर्जी ने राजा से कहा कि महाराज जो भी आप उचित समझे वह दे दें। अब राजा तो राजा था उसको अपने हिसाब से देना था, कही देने में उसकी पोजीशन ख़राब न हो जाये इसलिये उसने अपने मंत्री को कहा की इस दर्जी को 2 गांव दे दो, यह हमारा हुकम है।

अब देखो कहां पर दर्जी सिर्फ 2 रुपये की मांग कर रहा था और कहां पर राजा ने उसको 2 गांव दे दिए।

मित्रों कहानी से तात्पर्य ये हैं कि जब हम सब कुछ प्रभु पर छोड़ देते हैं तो वो परमपिता परमात्मा भी अपने हिसाब से देता हैं, अरे हम तो मांगने में कमी कर जाते है, पर वो परमपिता परमात्मा तो पता नही हमे क्या-क्या देना चाहता हैं। इसलिए संत-महात्मा कहते है कि प्रभु के चरणों पर अपने-आप को समर्पित कर दो फिर देखो इसकी लीला, वारे-न्यारे न कर दे तो कहना।

राधे-राधे....

14 मार्च 2015

दान भी दुःख का कारण बन सकता हैं।

मित्रों दान  देने से पहले जरा सोच लें...
दान करना हमारे समाज में अति शुभ माना गया है। लेकिन कई बार यह दान दुःख का कारण भी बन जाता है। हमारे आसपास ऐसे कई व्यक्ति है जो कि ज्यादा दान या ज्यादा धर्म में लीन रहते है। फिर भी कष्ट उनका व उनके परिवार का पीछा नहीं छोड़ता तब हम अपने को सांत्वना स्वरूप यह कह कर संतोष करते है कि भगवान शायद हमारी परीक्षा ले रहा है।

अरे भाई भगवान् कोई तुम्हारी परीक्षा-वरीक्षा नही ले रहा, बल्कि वो तो तुम्हारे ही कर्मो का फल तुम्हे दे रहा है। बहुत दान धर्म करने के बाद भी सुख नही मिलता क्योकि तुम्हारे द्वारा दिया दान ही दुःख का कारण बन जाता है।

एक समय की बात है। एक बार एक गरीब आदमी एक सेठ के पास जाता है और भोजन के लिए सहायता मांगता है। सेठ बहुत धर्मात्मा होता है वो उसे पैसे देता है। पैसे लेकर व्यक्ति भोजन करता है, और उसके पास कुछ पैसे बचते है जिससे वो शराब पी लेता है। शराब पीकर घर जाता है और अपनी पत्नी को मारता है। पत्नी दुखी होकर अपने दो बच्चो के साथ तालाब में कूद कर आत्म हत्या कर लेती है।

कुछ समय बाद उस सेठ की भी असाध्य रोग से मृत्यु हो जाती है। मरने के बाद सेठ जब ऊपर जाता है तब यमराज बोलते है कि इसको नरक में फेंक दो। सेठ यह सुनकर यमराज से कहता है कि आपसे गलती हुई है, मैने तो कभी कोई पाप भी नही किया है, बल्कि जब भी कोई मेरे पास आया है मेने उसकी हमेशा मदद ही की है। इसलिये मुझे एक बार भगवान् से मिला दो। तब यमराज उसे बोलते है कि हमारे यहाँ तो गलती की कोई संभावना नही है, गलतिया तो तुम लोग ही करते हो। पर सेठ के बहुत कहने पर यमराज उसे भगवान् के समक्ष पेश करते है।

भगवान् के सामने जाकर सेठ बोलता है प्रभु मैने तो कोई पाप किया ही नही है तो मुझे नरक क्यों दिया जा रहा है। तब भगवान् उसे उस गरीब व्यक्ति को पैसे देने वाली बात बताते है कि उस व्यक्ति की पत्नी और दो बच्चो की जीव हत्या का कारण तू है। तू उसे पैसे न देता तो वो शराब पीकर अपनी पत्नी को दुःख नही देता। सेठ बोलता है प्रभु मेने तो एक गरीब को दान दिया है और शास्त्रों में भी दान देने की बात लिखी है।

तब भगवान् ने कहा कि दान देने से पहले पात्र की योग्यता तो परखनी चाहिए की वो दान लेने के योग्य है या नहीं, या उसे किस प्रकार के दान की जरुरत है। तुमने धन देकर उसकी मदद क्यों की, तुम उसको भोजन भी करा सकते थे। और रही बात उसकी दरिद्रता की तो उसे देना होता तो में ही दे देता, वो जिस योग्य था उतना मैने उसे दिया, जब मैने ही उसकी अयोग्यता के कारण उससे सब कुछ नही दिया तो तुम्हे उसे क्या जरुरत थी धन देने की, तुम उसे भोजन भी करवा सकते थे। और तुम्हारे दिये हुए धन-दान के कारण तीन जीव हत्याए हुई है और इन हत्याओ के पाप का फल अब तुम्हे भुगतना पड़ेगा।

मित्रों इस कहानी से तात्पर्य ये हैं की दान देने से पहले ये परखले की आप जो दान कर रहे है उसका उपयोग किसी पाप कर्म में तो नही हो रहा है। भले हि दान हेतु आपके भाव श्रेष्ठ हो परन्तु आपके द्वारा दिये दान से कोई पाप कर्म फलित होता है, तो आपको उस दिए दान के पुण्य के साथ-साथ उसके पाप के फल को भी भोगना होगा।

एक छोटा सा उदाहरण और बताता हूँ।
कन्या दान सभी दानो में श्रेष्ठ दान है और माता-पिता अपनी सूझ-बूझ से एक योग्य वर को अपनी कन्या दान दे देते है, परन्तु फिर भी माता-पिता की सूझ-बूझ में चूक रह जाती हैं। और विवाह बाद वर की अयोग्यता के कारण उस कन्या को दुःख होता है। और कन्या के उस दुःख का दर्द जीवन भर माता-पिता को भोगना पड़ता है।

तो दुःख क्यों आया ?
ज्ञान में कमी के कारण। जहाँ हमारी सूझ-बूझ कमजोर हुई, जहाँ हमारी परख कमजोर हुई, जहाँ हमारा अनुभव कमजोर हुआ बस वही से दुःख वहीं से शुरू ही गया।

तो जैसे गलत वर को किया गया कन्यादान का दुःख माता-पिता को भोगना पड़ता है, वैसे ही जीवन में किया गया एक छोटा सा गलत दान भी दुःख का कारण बन सकता है।

राधे-राधे...

भाग लिखी मिटे नही, लिखे विधाता लेख मिल जावे गुरु मेहर तो, लगे लेख पे मेख ।।

भले हीं आपके भाग्य में कुछ नहीं लिखा हो
पर अगर "गुरु की कृपा" आप पर हो जाए तो आप वो भी पा सकते है जो आपके भाग्य में नही हैं।

आइये मित्रों जो किस्मत में नही लिखा है वो कैसे पाया जा सकता हैं, इसका लोजिक बताता हूँ।

मित्रों एक सत्य घटना हैं।
काशी नगर के एक धनी सेठ थे, जिनके कोई संतान नही थी। बड़े-बड़े विद्वान् ज्योतिषो से सलाह-मशवरा करने के बाद भी उन्हें कोई लाभ नही मिला। सभी उपायों से निराश होने के बाद सेठजी को किसी ने सलाह दी की आप गोस्वामी जी के पास जाइये वे रोज़ रामायण पढ़ते है तब भगवान "राम" स्वयं कथा सुनने आते हैं। इसलिये उनसे कहना कि भगवान् से पूछे की आपके संतान कब होगी।

सेठजी गोस्वामी जी के पास जाते है और अपनी समस्या के बारे में भगवान् से बात करने को कहते हैं। कथा समाप्त होने के बाद गोस्वामी जी भगवान से पूछते है, की प्रभु वो सेठजी आये थे, जो अपनी संतान के बारे में पूछ रहे थे। तब भगवान् ने कहा कि गोवास्वामी जी उन्होंने पिछले जन्मों में अपनी संतान को बहुत दुःख दिए हैं इस कारण उनके तो सात जन्मो तक संतान नही लिखी हुई हैं।

दूसरे दिन गोस्वामी जी, सेठ जी को सारी बात बता देते हैं। सेठ जी मायूस होकर ईश्वर की मर्जी मानकर चले जाते है।

थोड़े दिनों बाद सेठजी के घर एक संत आते है। और वो भिक्षा मांगते हुए कहते है की भिक्षा दो फिर जो मांगोगे वो मिलेगा। तब सेठजी की पत्नी संत से बोलती हैं कि गुरूजी मेरे संतान नही हैं। तो संत बोले तू एक रोटी देगी तो तेरे एक संतान जरुर होगी। व्यापारी की पत्नी उसे दो रोटी दे देती है। उससे प्रसन्न होकर संत ये कहकर चला जाता है कि जाओ तुम्हारे दो संतान होगी।

एक वर्ष बाद सेठजी के दो जुड़वाँ संताने हो जाती है। कुछ समय बाद गोस्वामी जी का उधर से निकलना होता हैं। व्यापारी के दोनों बच्चे घर के बाहर खेल रहे होते है। उन्हें देखकर वे व्यापारी से पूछते है की ये बच्चे किसके है। व्यापारी बोलता है गोस्वामी जी ये बच्चे मेरे ही है। आपने तो झूठ बोल दिया की भगवान् ने कहा की मेरे संतान नही होगी, पर ये देखो गोस्वामी जी मेरे दो जुड़वा संताने हुई हैं। गोस्वामी जी ये सुन कर आश्चर्यचकित हो जाते है। फिर व्यापारी उन्हें उस संत के वचन के बारे में बताता हैं। उसकी बात सुनकर गोस्वामी जी चले जाते है।

शाम को गोस्वामीजी कुछ चितिंत मुद्रा में रामायण पढते हैं, तो भगवान् उनसे पूछते है कि गोस्वामी जी आज क्या बात है? चिन्तित मुद्रा में क्यों हो? तो गोस्वामी जी कहते है की प्रभु आपने मुझे उस व्यापारी के सामने झूठा पटक दिया। आपने तो कहा ना की व्यापारी के सात जन्म तक कोई संतान नही लिखी है फिर उसके दो संताने कैसे हो गई।

तब भगवान् बोले कि उसके पूर्व जन्म के बुरे कर्मो के कारण में उसे सात जन्म तक संतान नही दे सकता क्योकि में नियमो की मर्यादा में बंधा हूँ। पर अगर.. मेरे किसी भक्त ने उन्हें कह दिया की तुम्हारे संतान होगी, तो उस समय में भी कुछ नही कर सकता गोस्वामी जी। क्योकि में भी मेरे भक्तों की मर्यादा से बंधा हूँ। मै मेरे भक्तो के वचनों को काट नही सकता मुझे मेरे भक्तों की बात रखनी पड़ती हैं। इसलिए गोस्वामी जी अगर आप भी उसे कह देते की जा तेरे संतान हो जायेगी तो मुझे आप जैसे भक्तों के वचनों की रक्षा के लिए भी अपनी मर्यादा को तोड़ कर वो सब कुछ देना पड़ता हैं जो उसके नही लिखा हैं।
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मित्रों कहानी से तात्पर्य यही हैं कि भले हीं विधाता ने आपके भाग्य में कुछ ना लिखा हो, पर अगर किसी गुरु की आप पर कृपा हो जाये तो आपको वो भी मिल सकता है जो आपके किस्मत में नही।
इसलिए कहते है मित्रों कि...

भाग लिखी मिटे नही, लिखे विधाता लेख
मिल जावे गुरु मेहर तो, लगे लेख पे मेख ।।

भाग्य में लिखा विधाता का लेख मिट नही सकता। पर किसी पर गुरु की मेहरबानी हो जाए तो विधाता का लेख भी दिवार की मेख पर लटका रह जाता हैं।

राधे-राधे...

"ईश्वरीय उपस्थिति की जोधपुर की एक सत्य घटना" जिसका साक्षी में स्वयं रहा हूँ।

मित्रों कुछ समय पुरानी बात है, जोधपुर शहर, पन्ना निवास के पास लौहारों की गली में एक रामसुखी बाई खत्री नाम की एक विधवा औरत "गोविन्द पाठशाला" के नाम से एक छोटी सी पाठशाला चलाती थी। मित्रों बचपन में मै स्वयं उस पाठशाला का विधार्थी रह चुका हूँ। और जो सत्य घटना मै आपको बताने जा रहा हूँ वो मेरे उसी विधार्थी काल की हैं।

मित्रों पाठशाला के पास श्री गोविन्दलाल जी का एक मंदिर था, जो आज भी वहीँ है। रामसुखी बाई रोज सुबह मंदिर जाती और भगवान् से कहती, प्रभु- आप सब पर कृपा करते है, कभी मुझ पर भी कभी कृपा कीजिये।

उनके प्रेम और वात्सल्य के भाव को देख भगवान श्री गोविन्दलाल जी एक दिन सुबह पांच बजे उनके यहाँ एक मुस्लिम बच्चे के भेष में मुस्लिम-टोपी लगाकर पंहुच गये। उस समय रामसुखी बाई पानी भर रहे थे। तब उस बच्चे ने तुतलाती भाषा में पुछा की बाईजी-बाईजी मुझे भी पढना है, क्या आप मुझे पढ़ायेंगे ? रामसुखी बाई को पता नही क्या हुआ जो उन्होंने मुस्लिम भेष में आये भगवान् श्री गोविन्दलाल जी को डांट फटकार कर भगा दिया।

तो अब ये कैसे पता चला की वो भगवान थे ?
तो हुआ यूं कि रात को मंदिर के पुजारी के स्वप्न मे भगवान् श्री गोविन्दलाल जी आये। और भगवान ने इस घटना को उन्हें बताया और बोला की रामसुखी बाई मुझे समझ नही पाई, नही तो उनके जीवन काल में मै स्वयं उनका शिष्य बनकर रहता।

पुजारी को स्वप्न पर विश्वास नही हुआ। वे सुबह उठते हीं रामसुखी बाई के पास गए और पूछा कि कल सुबह कोई बच्चा आपके पास आया क्या ? तो उन्होंने उस घटना की पुष्टि करते हुए कहा कि हां सुबह एक बच्चा आया था। तब पुजारी ने स्वप्न वाली बात उन्हें बताई की और कहा कि आप भगवान् को रोज बोलती थी कि कभी मुझ पर भी कृपा करो, इसलिए भगवान् बच्चे के वेश में आपके पास आये पर आपके किस्मत में लिखा ना होने के कारण आप इससे वंचित रह गए।
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मित्रों ऐसी घटना होना ये कोई नई बात नही हैं।
हमारे स्वयं के जीवन में भी अक्सर भगवान ऐसे हीं आते है। परन्तु ज्ञान के अभाव और सांसारिक मोह माया में फसे हुए होने के कारण हम जीवन में आये भगवान् को भी समझ नही पाते।

मित्रों ऐसे अवसरों का लाभ उठाने के लिए इस संसार रूपी पाठशाला में एक आध्यात्मिक गुरु होना बहुत जरुरी है जो हमें उसके बारे में बता सके। क्योकि गुरु ही है जो हमें "सत्संग" रूपी क्लास में बैठाकर ज्ञान रूपी दिव्य द्रष्टि प्रदान कर ऐसे अवसरों का लाभ दिला सकते हैं। इसीलिए कहने वाले ये भी कहते हैं कि....

ज्ञान गोखड़े बैठने, गुरु नित हीं समझाय।
आवे जद हरी सामने, सगळा ने दिखलाय।।

राधे-राधे..

हमें कर्मो का नहीं बल्कि भावों का फल मिलता हैं। कर्म तो मात्र एक साधन है फल तक पंहुचने का।

मित्रों आज तक हम सुनते आये है कि हमें कर्मो का फल मिलता हैं। पर गलत...
हमें कर्मो का नहीं बल्कि भावों का फल मिलता हैं। कर्म तो मात्र एक साधन है फल तक पंहुचने का।

आइये एक कहानी द्वारा आपको कर्मो के फलों को बदलने का राज बताता हूँ।

मित्रों एक समय की बात है एक सन्यासी अपनी कुटिया के बाहर बैठकर रोज परमात्मा का ध्यान लगाता था। उसकी कुटिया के सामने एक वेश्या का भी घर था।

सन्यासी रोज वेश्या के कर्मो को देखकर दिनभर मन ही मन यह विचार करता की देखो ये कितना नीच कर्म कर रही है और ईश्वर द्वारा मिली इस देह को पाप कर्म में लिप्त कर अपना नरक बना रही हैं।

वही दूसरी और वो वेश्या सन्यासी को रोज भगवान् का ध्यान लगाते देख यह चिंतन करती थी की देखो साधू महात्मा कितने पुण्यशाली हैं जो हमेशा भगवान् के ध्यान में लीन रहते हैं।

पूरे जीवन काल तक दोनों का चिंतन एक दूसरे के प्रति ऐसा ही बना रहा। मरणोपरांत जब दोनों ऊपर जाते है तब भगवान् अपने दूतों से वेश्या को स्वर्ग भेजने का और साधू को नरक में डालने का फैसला सुनाते हैं।

भगवान् का फैसला सुनकर साधू, भगवान् से कहता है कि प्रभु इस वेश्या ने जीवन भर अपनी देह को पाप कर्मो में लगाए रखा और मैंने जीवन भर इस देह को आपके ध्यान में लगाके रखा, फिर इसे स्वर्ग और मुझे नरक क्यों ?

भगवान् ने कहा साधू महात्मा आपका कथन बिल्कुल सत्य है। आपने जीवन भर अपनी देह को जप और ध्यान में लगाये रखा। परन्तु तन से भले ही आप मेरा नाम जप रहे थे, पर आपका मन और मानसिक ध्यान तो हमेशा वेश्या के पाप कर्मो के चिंतन में लगा रहता था। वहीँ दूसरी और ये वेश्या रोज आपको देखकर एक हीं चिंतन करती थी कि साधू महात्मा कितने पुण्यशाली है जो हमेशा भगवान् का ध्यान लगाते है। और आप हीं को देखकर ये निरंतर मेरा ध्यान करती थी।

महात्मा जी कर्म भले ही अच्छे हो, पर अगर आपका "ध्यान" संसार की बुराइयों में है, आपके मन के भाव बुरे है, तब तक मुक्ति संभव नही।

महात्मा जी मंदिर में आकर लोग मुझे कितने हीं हाथ जोड़ले, दंडवत करले, प्रसाद चढ़ाले या और भी मुझे रिझाने के कोई कर्म करले, पर में वो कुछ नही देखता, में तो इतना कुछ करने के बाद भी उनके कर्म के पीछे छुपे मन के भावों को हीं देखता हूँ और उन्ही भावों के अनुसार उसके कर्म करते हीं फल देता हूँ।

महात्मा जी लोग भले हीं रोज मंदिर जाते हो, परन्तु ये जरुरी नही की वे सुखी हो पायेंगे। क्योकि इस कलयुग में अधिकतर लोग अपने स्वार्थ सिद्धि हेतु मन में बुरे भाव रखकर मुझे रिझाने का प्रयास करते हैं। हाथ मुझे जोड़ते है और मन से किसी और को कोसते हैं। पर में तो कर्म के सिद्धांतो की मर्यादा से बंधा हूँ.... इसलिये जैसे ही किसी ने हाथ पैर जोड़ने का कर्म किया, बस फिर में उसके मन के भावों के अनुरूप उसे फल देने को मजबूर हूँ।
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मित्रों इस कहानी से तात्पर्य ये हैं कि भगवान हमें कर्मो का नही बल्कि भावों का फल देते हैं। कर्म तो मात्र फल तक पंहुचने का एक साधन हैं।

जैसे सीता हरण और रुकमनी हरण दोनों कर्म एक जैसे थे, परन्तु भाव अलग-अलग होने के कारण दोनों के फल भी भिन्न-भिन्न थे।

जैसे कोई व्यक्ति किसी पर लाठी चार्ज करे तो उसको जेल में डाल दिया जाता हैं। पर इसकी जगह अगर पुलिस वाले लाठी चार्ज करे तो उन्हें कोई जेल में नही डालता बल्कि प्रमोशन दिया जाता हैं। आखिर दोनों के कर्म एक से होते हुए भी फल भिन्न-भिन्न क्यों ? वो इसलिये की उस व्यक्ति का भाव हिंसा फैलाने का था और पुलिस का भाव हिंसा मिटाने का था।

तो मित्रों देखा दो लोगों ने एक ही तरह के कर्म किये फिर भी उनके फल भिन्न-भिन्न मिले। फिर आप कैसे कह सकते है कि हमें कर्मो का फल मिलता हैं। कर्म तो मात्र एक साधन है, फल तक पहुँचने का। बाकि फल का निर्धारण तो आपके भाव के साथ ही हो जाता हैं।

इसलिए मित्रों में इस बात का खंडन करता हूँ कि हमें कर्मो का फल मिलता हैं।हमें कर्मो का नही बल्कि भावों का फल मिलता हैं।

मित्रों इस कर्म के सिद्धांत को अगर आप समझ गए हैं तो आज से ही अपने हर कर्म को अच्छे भावों से जोड़ दीजिये। ऐसा करने से निश्चित हीं आपको कम समय में और न्यून परिश्रम में ही अच्छे परिणामों की प्राप्ति होने लगेगी।

राधे-राधे...

ईश्वर का कोई दखल नही हैं, हमारी जन्मपत्री या भाग्य के निर्माण में।

ईश्वर का कोई दखल नही हैं, हमारी जन्मपत्री या भाग्य के निर्माण में। सभी कुछ एक प्रोग्राम किये गए नियमों के द्वारा संपन्न हो रहा हैं।

आइये ईश्वर के इस सिस्टम को समझने का प्रयास करते हैं।

मित्रों आज तक हम सब ये सुनते आये हैं कि मरने के बाद स्वर्ग में बैठे कोई "चित्रगुप्त" जी हमारे कर्मों का लेखा-जोखा करके ये तय करेंगे की हमने क्या पाप किये हैं और क्या पुण्य किये हैं। और उसी के अनुसार वे हमारे अगले जन्म की ग्रह-दशा या दिशा तय करेंगे। और शास्त्रों में भी कुछ ऐसा ही बताया गया हैं।

मित्रों सच्चाई तो ये हैं कि स्वर्ग में "चित्रगुप्त" नाम का ऐसा कोई अधिकारी नही हैं। तो क्या सभी शास्त्र झूठे हैं ?
नही बिल्कुल नहीं, शास्त्रों में कुछ भी गलत नही लिखा हैं... बस फर्क इतना ही हैं कि शास्त्रों के श्लोको का अनुवाद, अनुवादकर्ताओ ने अपनी-अपनी शब्दावली में प्रस्तुत किया हैं।

मित्रों अपने जीवन पर थोडा गहराई में जाकर "ध्यान" दीजिये, और देखिये... कि कोई ऐसा हैं... जो जन्म से लेकर मृत्यु तक हर पल आपके साथ हैं, वो हर-पल, सोते-जागते, उठते-बैठते, पल-पल आपके साथ हैं। आप सो जाते हो फिर भी वो जाग रहा होता हैं।
जो निरन्तर आपको और आपके कर्मों को देख रहा हैं।
जो जन्मों-जन्मों से आपके साथ हैं।
आखिर कौन हैं वो ???
मित्रों वो और कोई नही...
आपका "अंतर्मन" हैं...
बचपन से लेकर अब तक आपका अंतर्मन आपकी सारी बातों को जानता हैं, आपके सारे कर्मों को जानता हैं, आपके सारे अच्छे-बुरे कर्मो का लेखा-जोखा इसी अंतर्मन के पास हैं। बचपन से लेकर मृत्यु तक आपका मन पल-पल की रिकॉर्डिंग कर रहा होता हैं। और ये ही नही आपका हर कर्म... मन की मैमोरी में उस कर्म को "चित्रों" साथ... उस कर्म से जुड़ीं उसकी भावना (फिलिंग) के साथ Save कर रहा होता हैं। आपने आज तक जो पाप किया हैं वो आपके मन को पता हैं। आपने जो पुण्य किये वो आपके मन को पता हैं। आपके जीवन की हर घटना की जानकारी और उससे सम्बंधित बने भाव का हर-पल आपका मन रिकॉर्ड कर रहा होता हैं।
और....
मरणोंपरान्त आपके मन में रिकॉर्ड इन्ही ""गुप्तचित्रों"" और इनके साथ जुडी भावनाओं (फिलिंग) के आधार पर ही आपके अगले जन्म का निर्धारण आपके द्वारा ही हो जाता हैं। मृत्यु के समय इस जन्म में बने सभी भावों के अनुसार उनके फलों को अगले जन्म में ट्रांसफर कर दिया जाता हैं। मित्रों सारा का सारा कंप्यूटर सिस्टम आपमें ही सेट हैं। सब का सब एक निश्चित प्रोग्रामिंग के तहत संपन्न होता जाता हैं। आप क्या सोचते हो कंप्यूटर आप ही बना सकते हो ? कंप्यूटर प्रोग्रामिंग सिर्फ मनुष्य को ही आती हैं। अरे कंप्यूटर... इंसान ने बनाया और इंसान को भगवान् ने बनाया, तो इंसान को बनाने वाला भगवान् क्या प्रोग्रामिंग नही समझता ? हा हा हा...

मित्रों स्वर्ग में बैठा ये ""चित्रगुप्त"" और कोई नही... बल्कि जन्म से लेकर मृत्यु तक... आपके अंतर्मन में रिकॉर्ड हुए इन "गुप्तचित्रों" को हीं "चित्रगुप्त" कहा गया हैं। और इन्ही गुप्तचित्रों के साथ-साथ हमारे पाप-पुण्य का भी ब्यौरा जुड़ा होता हैं जो हमारे द्वारा ही डाला होता हैं। भाई आप जो भी कर्म कर रहे हो वो आपको पता है कि कोनसा पाप हैं और कोनसा पुण्य हैं। जैसे आप झूठ बोल रहे हो या चोरी कर रहे हो.. तो आपके मन को पता है की आप ये पाप कर रहे हो। बस फिर क्या सिस्टम हमारे द्वारा ही फीड किये हुए पाप-पुण्य का आंकलन कर अगली दिशा तय कर देता हैं।

मित्रों गीता के आँठवे अध्याय के छटे श्लोक में देखो क्या लिखा हैं। हालाँकि मुझे संस्कृत नही आती हैं पर गीता पढ़ते समय मैं उसके हिंदी में दिये अनुवाद को गहराई में जाकर समझने का प्रयास करता हूँ।

यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम्।
तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः॥८- ६॥

इसका अर्थ हैं कि मनुष्य अपने जीवन के अंतकाल में अपने मन में जिस-जिस भी भाव का स्मरण करता हुआ शरीर त्याग करता है वह उस उसको ही प्राप्त होता है क्योंकि वो सदा उसी भाव से भावित है।

यानी मरते समय हमारे मन में अलग-अलग विषयों के प्रति जैसा-जैसा भाव होता हैं उन्ही भावों के अनुसार अगले जन्म में हम उसी को प्राप्त होते हैं। जैसे मरते समय किसी व्यक्ति के अंतर्मन में संतान के प्रति ऐसा भाव बन जाये की "सन्तान ना होती तो अच्छा होता" तो उसके इसी भाव के अनुसार ""जन्मपत्री"" के पंचम भाव से पीड़ित वाली ग्रह-स्तिथि में जन्म दे दिया जाता हैं। और अगले जन्म में उसके सन्तान का अभाव रहता हैं, क्योकि मरते समय उसका सन्तान न होने का भाव बन गया। और अगर कोई व्यक्ति किसी दूसरे की सन्तान को देखकर मन मैं ऐसा भाव बना लें की मुझे अगले जन्म में ऐसी आज्ञाकारी सन्तान मिले तो अगले जन्म में उसे भावानुसार वैसी ही संतान सन्तान का सुख मिलता हैं।

मित्रों मैंने मात्र एक छोटा सा उदाहरण प्रस्तुत किया हैं। अगला जन्म, और जन्मपत्री के ग्रह-नक्षत्रों का चुनाव मात्र एक संतान के विषय भाव से संपन्न नही होता बल्कि मरते समय उसके अंतर्मन में जीवन के अनुभव से जिस-जिस विषय के प्रति जैसा-जैसा भाव बनता हैं उन सभी भावों के अंत में जो फल निकलता हैं उसी के अनुसार नियमों के आधार पर जातक स्वयं अपनी जन्मकालीन "ग्रह-नक्षत्र" स्तथि का चुनाव कर सटीक समय पर उस जगह जन्म लेता हैं जो उसका भाव होता हैं। मित्रों इन जन्मकालीन "ग्रह-नक्षत्र" स्तथि के चुनाव में ईश्वर का कोई दखल नही होता हैं, ये सब का सब सिस्टम और नियमों के मुताबिक़ ही संपन्न होता हैं।

(मित्रों एक बात ध्यान रखे, यहाँ संतान सम्बंधी मैंने मात्र एक छोटा सा उदाहरण प्रस्तुत किया हैं, पर इसके अलावा और भी बहुत से कारण होते हैं जिनसे संतान का अभाव रह सकता हैं।)

मित्रों मेरे शब्दों में कहूँ तो मन की माया बड़ी निराली हैं, मन ऊर्जावान हैं, और इसका ध्यान जिस और होता हैं ऊर्जा का प्रवाह भी उधर ही हो जाता हैं। संसार में जो भी कुछ घटित हो रहा हैं उसका मूल कारण हमारा ""ध्यान"" हैं।

मित्रों अब तो आपको समझ में आ गया होगा की हमारे जन्म और जन्मपत्री के निर्धारण में ईश्वर का कोई दखल नही होता... सबकुछ हमारे ही द्वारा संपन्न होता हैं। अगले आर्टिकल में इस बारे में हम और चर्चा करेंगे जिसमे पाप-पुण्य का निर्धारण हमारे द्वारा कैसे होता हैं, और जन्मकालीन ग्रहों का या पिछले जन्म के भावों का कैसा प्रभाव इस जन्म में होता हैं, और किन उपायों से उन पिछले जन्म के बुरे भावों के प्रभाव को काटा जा सकता हैं, या ज्योतिष की भाषा में कैसे ग्रहों के बुरे प्रभाव से मुक्त हुआ जा सकता हैं।

राधे-राधे...

ज्योतिष भूत-भविष्य को समझने का मात्र एक विज्ञान हैं पर बिना कर्म सिद्धांत को समझे भविष्य को बदला नही जा सकता

मित्रों ज्योतिष... भूत-भविष्य को समझने का एक विज्ञान हैं। पर मात्र इस विज्ञान को समझ लेने से भाग्य को नही बदला जा सकता, इसके लिये हमें कर्म-सिद्धांत का ज्ञान होना भी बहुत जरुरी हैं। क्योंकि कर्मो के द्वारा हीं भाग्य को बदला जा सकता है।

आइये मित्रों ज्योतिष और कर्म-सिद्धांत को सूक्ष्म रूप में समझने का प्रयास करते हैं।

मित्रों हम सोचते है कि जीवन में सब कुछ भाग्य के आधार पर संपन्न होता है। पर सत्य तो ये है... कि भाग्य का निर्धारण स्वयं "कर्म" और मन के भाव के आधार पर संपन्न होता है। ना तो बिना कर्म किये भाग्य बनता है, और ना ही बिना कर्म किये भाग्य फलता है।

पर कैसे ?

मित्रों जैसे चौसर के पासे फेंकना हमारे हाथ होता है, पर अंक मिलना भाग्य के हाथ होता है। पर भाग्य में लिखे अंको को अगर पाना है, तो पासा तो फेंकना हीं पड़ता हैं। बिना पास फेंके अंक मिलने वाला नहीं।

बस इसी सिद्धांत के अनुसार आप ये बात भलीभांति समझलें कि भाग्य में आपके जो भी कुछ भी लिखा है, वो बिना कर्म किये आपको मिलने वाला नहीं। अब चाहे फल अच्छा हो या बुरा, सिद्धांतनुसार कर्म के बाद ही फल मिलता हैं।

मित्रों अपनी बातों से में ना तो किसी की "भाग्यवादी" बनाना नही चाहता, और ना हीं किसी को "कर्महीन" रखना चाहता हूँ।
पर कर्म कब करना है इसके बारे में बताना चाहता हूँ।

ज्योतिष:- यानि ईश्वरीय ज्योति (ज्योति+ईष)
क्या है ये ज्योतिष ?

ज्योतिष कोई चमत्कार नही हैं। ये एक अपने आप में समग्र विज्ञान है। जिसका ज्ञान ज्योतिष में रुची रखने वालों को होता है। जैसे अंग्रेजी भाषा का ज्ञान रखने वाला इंग्लिश में लिखा हुआ पढ़कर ट्रांसलेट कर देता है। ठीक वैसे ही एक ज्योतिषी ग्रहों की स्थति और चाल को समझकर कुण्डली को ट्रांसलेट कर देता हैं। और उसी ट्रांसलेशन को समझ कर भविष्य में आपके साथ क्या-क्या होगा इसको निर्धारित कर, आपको कब क्या करना है उसका निर्धारण "अनुभव" से अनुसार करता है।

मित्रों ज्योतिष ही एक मात्र समग्र विज्ञान है जो आपको जीवन रुपी इस चौसर में पासा फेकने का सही समय बताता है। यानी कर्म कब करना है इसका ज्ञान देता हैं।

मित्रों अक्सर हम हमारे जीवन में देखते है की बहुत परिश्रम और अच्छे कर्म करने के बावजूत भी अच्छे परिणाम नही मिलते बल्कि अच्छे कर्म करने के बावजूत भी नकारात्मकता का सामना करना पड़ता है।
और कभी-कभी ऐसा समय भी आता है जब हमें कम परिश्रम में भी श्रेष्ठ परिणाम शीघ्रता से मिल जाते है। ये सभी घटनाएं अच्छे और बुरे समय और ग्रहों की शुभाशुभ दशा-अंतर्दशा से संपन्न होती हैं।

जैसा कि मैं पहले बता चूका हूँ कि बिना कर्म किये आपको कुछ मिलने वाला नही। तो इसी "सिद्धांत" से ये बात क्लीयर हो चुकी हैं कि जीवन में हमे जो भी फल मिलेगा वो कर्म करने के बाद ही मिलेगा, बिना कर्म किये फल नही मिलेगा। चाहे फल अच्छा हो या बुरा।

कहने का मतलब ये है कि समय अच्छा है तो कर्म करके ही फल को पाया जा सकता हैं। और समय बुरा है तो कर्म को टाल कर बुरे परिणामों को रोका या कम भी जा सकता है।

तो विद्वान ज्योतिष अपने ज्ञान से विश्लेषण कर सही समय पर कर्म करने का ज्ञान जातक को देते है। और जब सही समय होता है तब पासा फेंकने को बोलते हैं। अर्थात कर्म करने का बोलते है अन्यथा यथा स्थिति सँभालने का निर्देश देते है।

तो ज्योतिष विज्ञान के द्वारा हम कर्म करने के साथ-साथ कर्म करने के समय का ज्ञान प्राप्त कर जीवन को सफल और श्रेष्ठ बना सकते है। इसीलिये कहते है कि...

लाभ समय को पालिये, हानि समय की चूक।

यानी समय को समझ लिया तो लाभ को पाओगे और समय को समझने में चूक गए तो हानि उठानी पड़ेगी।

इसके बावजूत मित्रों में एक और बात से भी सहमत हूँ कि जो लोग नित-प्रतिदिन "सत्संग" करते है या किसी भी विधि से ईश्वर से जुड़े रहते है। उन्हें ईश्वर की कृपा से यह कर्म ज्ञान स्वत: ही प्राप्त हो जाता है। और जो उपाय या मार्ग एक ज्योतिष बताता है, वे उपाय या कर्म उन लोगों से स्वत: ही होने लग जाते है जिनसे जीवन में सुख आता है।

मित्रों 84 लाख योनियों में एक मनुष्य योनि हीं ऐसी है जिसमे कर्म के द्वारा भाग्य को बदला जा सकता हैं। हालाँकि "कर्म-सिद्धान्त" का विषय तो बहुत विस्तृत हैं जिसे मात्र कुछ शब्दों में नहीं बताया जा सकता। मैंने यहाँ एक साधारण नियम की बात की हैं, बाकी कर्मकाण्ड, दान-धर्म, मन्त्र-जाप, रत्न धारण इत्यादि अनेक विधियाँ है जिसनके द्वारा भाग्य को बदला जा सकता हैं। मैं आगे आने वाले लेखों में आपको ये बताने का प्रयत्न करूँगा कि कैसे, कर्म-सिद्धांत के द्वारा आने वाले बुरे समय को अच्छे समय की और Divert किया जा सकता हैं।

राधे-राधे...