मित्रों "जीवन-दर्शन" के इस सफर में आपका हार्दिक स्वागत हैं। अपने जीवन के आज तक के सफ़र में मैंने जो दर्शन किया हैं, जो समझा हैं, जिस सत्य को पहचाना हैं, वो आप भी जाने ऐसा एक प्रयास है मेरा। मित्रों पेशे से मैं एक व्यापारी हूँ, पर बचपन से ही खोजी प्रवर्ति का रहा हूँ। ईश्वर के नियमों और सिद्धांतो को समझने के लिये मैंने धार्मिक ग्रंथो के साथ-साथ भूत-भविष्य को जानने वाले हस्त-रेखा, ज्योतिष शास्त्र इत्यादि और इनसे सम्बंधित विषयों का भी अध्ययन किया हैं। पर फिर भी मुझे इनसे कोई संतुष्टि नही मिली। ज्योतिष विज्ञान के द्वारा सब-कुछ जानने के बाद भी एक अधूरा सा पन महसूस होता था। ऐसे में सत्य की खोज करते-करते ध्यान और दर्शन-शास्त्र से जुड़ गया। यहाँ मैंने ईश्वर के अनेक नियमों को जाना, पर फिर भी जब तक उसको ना पा लूँ तब तक अधूरा ही हूँ।
मित्रों सत्य की खोज और "जीवन" के वास्तविक स्वरुप को समझने की कला ही "दर्शन" हैं। जो व्यक्ति ज्ञान को प्राप्त करने तथा नई-नई बातों और रहस्यों को जानने में रूचि रखता हैं, और फिर भी उसकी जिज्ञासा शांत नही होती, वो दार्शनिक कहलाता हैं। दर्शन का आरम्भ जिज्ञासा से होता हैं। बिना ईच्छा या जिज्ञासा के ज्ञान संभव नहीं। जीवन क्या हैं, आत्मा क्या हैं, परमात्मा क्या हैं, जीवन का आदि अंत सत्य क्या हैं? यही दर्शन का विषय हैं।
राधे-राधे...

14 मार्च 2015

दान भी दुःख का कारण बन सकता हैं।

मित्रों दान  देने से पहले जरा सोच लें...
दान करना हमारे समाज में अति शुभ माना गया है। लेकिन कई बार यह दान दुःख का कारण भी बन जाता है। हमारे आसपास ऐसे कई व्यक्ति है जो कि ज्यादा दान या ज्यादा धर्म में लीन रहते है। फिर भी कष्ट उनका व उनके परिवार का पीछा नहीं छोड़ता तब हम अपने को सांत्वना स्वरूप यह कह कर संतोष करते है कि भगवान शायद हमारी परीक्षा ले रहा है।

अरे भाई भगवान् कोई तुम्हारी परीक्षा-वरीक्षा नही ले रहा, बल्कि वो तो तुम्हारे ही कर्मो का फल तुम्हे दे रहा है। बहुत दान धर्म करने के बाद भी सुख नही मिलता क्योकि तुम्हारे द्वारा दिया दान ही दुःख का कारण बन जाता है।

एक समय की बात है। एक बार एक गरीब आदमी एक सेठ के पास जाता है और भोजन के लिए सहायता मांगता है। सेठ बहुत धर्मात्मा होता है वो उसे पैसे देता है। पैसे लेकर व्यक्ति भोजन करता है, और उसके पास कुछ पैसे बचते है जिससे वो शराब पी लेता है। शराब पीकर घर जाता है और अपनी पत्नी को मारता है। पत्नी दुखी होकर अपने दो बच्चो के साथ तालाब में कूद कर आत्म हत्या कर लेती है।

कुछ समय बाद उस सेठ की भी असाध्य रोग से मृत्यु हो जाती है। मरने के बाद सेठ जब ऊपर जाता है तब यमराज बोलते है कि इसको नरक में फेंक दो। सेठ यह सुनकर यमराज से कहता है कि आपसे गलती हुई है, मैने तो कभी कोई पाप भी नही किया है, बल्कि जब भी कोई मेरे पास आया है मेने उसकी हमेशा मदद ही की है। इसलिये मुझे एक बार भगवान् से मिला दो। तब यमराज उसे बोलते है कि हमारे यहाँ तो गलती की कोई संभावना नही है, गलतिया तो तुम लोग ही करते हो। पर सेठ के बहुत कहने पर यमराज उसे भगवान् के समक्ष पेश करते है।

भगवान् के सामने जाकर सेठ बोलता है प्रभु मैने तो कोई पाप किया ही नही है तो मुझे नरक क्यों दिया जा रहा है। तब भगवान् उसे उस गरीब व्यक्ति को पैसे देने वाली बात बताते है कि उस व्यक्ति की पत्नी और दो बच्चो की जीव हत्या का कारण तू है। तू उसे पैसे न देता तो वो शराब पीकर अपनी पत्नी को दुःख नही देता। सेठ बोलता है प्रभु मेने तो एक गरीब को दान दिया है और शास्त्रों में भी दान देने की बात लिखी है।

तब भगवान् ने कहा कि दान देने से पहले पात्र की योग्यता तो परखनी चाहिए की वो दान लेने के योग्य है या नहीं, या उसे किस प्रकार के दान की जरुरत है। तुमने धन देकर उसकी मदद क्यों की, तुम उसको भोजन भी करा सकते थे। और रही बात उसकी दरिद्रता की तो उसे देना होता तो में ही दे देता, वो जिस योग्य था उतना मैने उसे दिया, जब मैने ही उसकी अयोग्यता के कारण उससे सब कुछ नही दिया तो तुम्हे उसे क्या जरुरत थी धन देने की, तुम उसे भोजन भी करवा सकते थे। और तुम्हारे दिये हुए धन-दान के कारण तीन जीव हत्याए हुई है और इन हत्याओ के पाप का फल अब तुम्हे भुगतना पड़ेगा।

मित्रों इस कहानी से तात्पर्य ये हैं की दान देने से पहले ये परखले की आप जो दान कर रहे है उसका उपयोग किसी पाप कर्म में तो नही हो रहा है। भले हि दान हेतु आपके भाव श्रेष्ठ हो परन्तु आपके द्वारा दिये दान से कोई पाप कर्म फलित होता है, तो आपको उस दिए दान के पुण्य के साथ-साथ उसके पाप के फल को भी भोगना होगा।

एक छोटा सा उदाहरण और बताता हूँ।
कन्या दान सभी दानो में श्रेष्ठ दान है और माता-पिता अपनी सूझ-बूझ से एक योग्य वर को अपनी कन्या दान दे देते है, परन्तु फिर भी माता-पिता की सूझ-बूझ में चूक रह जाती हैं। और विवाह बाद वर की अयोग्यता के कारण उस कन्या को दुःख होता है। और कन्या के उस दुःख का दर्द जीवन भर माता-पिता को भोगना पड़ता है।

तो दुःख क्यों आया ?
ज्ञान में कमी के कारण। जहाँ हमारी सूझ-बूझ कमजोर हुई, जहाँ हमारी परख कमजोर हुई, जहाँ हमारा अनुभव कमजोर हुआ बस वही से दुःख वहीं से शुरू ही गया।

तो जैसे गलत वर को किया गया कन्यादान का दुःख माता-पिता को भोगना पड़ता है, वैसे ही जीवन में किया गया एक छोटा सा गलत दान भी दुःख का कारण बन सकता है।

राधे-राधे...