अगर आपमें स्वयं में अनुशासन हैं
तो हीं आप दूसरों पर शासन कर सकते हो।
कैसे?
एक बार एक बच्चे की गुड़ खाने की आदत से उसके घर वाले बहुत परेशान होते हैं। उसकी यह आदत छुड़ाने के लिए उसकी माँ उसे एक सन्यासी के पास ले जाती हैं। सन्यासी उसकी समस्या सुन एक माह बाद आने को कहते हैं।
एक माह बाद जब माँ फिर बच्चे को लेकर आश्रम जाती हैं तब सन्यासी उस बच्चे से इतना ही कहता है कि, "बेटा ज्यादा गुड़ खाना अच्छी बात नही हैं, इसलिए अब से गुड़ मत खाना"। बस इतना कह कर सन्यासी ने उसकी माँ को बोल दिया कि जाओ अब ये बच्चा गुड़ नही खायेगा। माँ को सन्यासी का आचरण अजीब सा लगा और वो सन्यासी को ढोंगी समझकर बच्चे को घर ले आती हैं।
दो-तीन दिन में बच्चे को गुड़ नही खाता देखकर सभी लोगों को बड़ा आश्चर्य होता हैं। सन्यासी का चमत्कार देखकर सब लोग सन्यासी के पास जाते हैं और उनसे माफ़ी मांगकर कहते है कि बाबा आप तो बहुत चमत्कारी हो, आपने तो इसे सिर्फ इतना ही कहा कि "गुड़ खाना अच्छी बात नहीं है और अब से गुड़ मत खाना"। और इसने गुड़ खाना छोड़ दिया। जबकि हम इसे रोज कहते थे पर इसने कभी हमारी बात नही मानी।
तब सन्यासी ने कहा माता इसमें चमत्कार वाली कोई बात नही है। बल्कि बात तो यह थी कि मै स्वयं बहुत ज्यादा गुड़ खाता था। पर इस एक माह में मैंने स्वयं गुड़ खाना छोड़ दिया तब जाकर इस बच्चे को यह बात कहने के लायक हुआ। क्योकि जब तक कोई गुण मुझमे नही तब तक उसे में दुसरे में कैसे विकसित कर सकता हूँ।
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मित्रों कहानी से तात्पर्य यही है कि जब तक कोई गुण आपमें नहीं तब तक आप उसे दूसरों में विकसित नही कर सकते। आपमें अनुशासन होगा तो ही आप दूसरों पर शासन कर सकते हैं।
अक्सर माता-पिता की यह शिकायत होती है की बच्चे हमारी बात नही मानते। अरे मानेंगे कैसे जो चीज आपके पास नही हैं, वो आप उनको देने चले हैं। अरे भाई मारवाड़ी में एक कहावत हैं कि
"कुँवा में होई जदे खेळी में आई"
यानी कुँवे में पानी होगा तो हीं बाल्टी में आएगा ना।
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मित्रों जब तक कोई गुण आपमे विद्धमान नही हैं तब तक आप उसे दूसरों में विकसित नही कर सकते है। क्योकि विद्धता से सिद्धता आती है। और जो चीज या गुण आपके पास नही, वो आप दूसरों को कैसे दोगे।
राधे-राधे...