मित्रों जैसे भारत के कानून में एक ही तरह के जुर्म पर अलग-अलग धाराएँ लगाकर फल यानी सजा का निर्णय लिया जाता हैं वैसे ही ईश्वरीय क़ानून में एक ही प्रकार के कर्म करने के बावजूत भी अलग-अलग फलो का निर्धारण किया जाता हैं। मैं अक्सर कहता हूँ कि हमें कर्मों का नही बल्कि भावों का फल मिलता हैं, कर्म तो मात्र एक साधन होता हैं फल तक पहुँचने का। फिर भी मित्रों एक सिद्धांत ऐसा भी हैं जिसमें भले ही आपने अच्छे भाव रखकर कर्म किया हैं, परन्तु फिर भी उस कर्म का परिणाम बुरा भुगतना पड़ता हैं।
ऐसी ही एक घटना हैं महाभारत काल की जिसमे ऐसा ही एक उदाहरण मिलता हैं।
मित्रों भीष्म पितामाह जब अपना शरीर छोड़ रहे थे तब उन्होंने श्री कृष्ण से पूछा, हे कृष्ण मुझे शूल शैया पैर क्यों लेटना पड़ा ? जबकि मैं अपने पिछले 70 जन्म तक देख चुका हूँ, उनमे मुझे ऐसा कोई कर्म नज़र नहीं आता जिस कारण ये गति हुई हैं।
तब श्री कृष्ण ने कहा पितामाह, आप अपना 71वां जन्म देखिये उस जन्म में आप एक राजा थे। और एक बार शिकार खेलने गये तब आपको रास्ते में एक घायल सर्प पड़ा दिखा। आपने सर्प को मार्ग में पड़ा देखकर उस सर्प को अपने बाण से उठाकर झाड़ियों में फेंक दिया, जिससे वो सर्प एक काटेदार झाड़ में जा गिरा और उसके पूरे शरीर में उस झाड़ के काँटे चुभकर आर-पार हो गये जिस कारण वो सर्प तिल-तिल कर मर गया। बस पितामाह आपको उसी कर्म की गति को आज भोगना पड़ रहा हैं।
मित्रों इस घटना से तात्पर्य ये हैं कि हमने भले ही अच्छे भाव रखकर भलाई का काम किया हो, पर अगर उसके बावजूत भी किसी का भला न होकर हानि हो जाये तो भी हमें उस पाप का फल जरुर मिलेगा।
राधे-राधे...