मित्रों "जीवन-दर्शन" के इस सफर में आपका हार्दिक स्वागत हैं। अपने जीवन के आज तक के सफ़र में मैंने जो दर्शन किया हैं, जो समझा हैं, जिस सत्य को पहचाना हैं, वो आप भी जाने ऐसा एक प्रयास है मेरा। मित्रों पेशे से मैं एक व्यापारी हूँ, पर बचपन से ही खोजी प्रवर्ति का रहा हूँ। ईश्वर के नियमों और सिद्धांतो को समझने के लिये मैंने धार्मिक ग्रंथो के साथ-साथ भूत-भविष्य को जानने वाले हस्त-रेखा, ज्योतिष शास्त्र इत्यादि और इनसे सम्बंधित विषयों का भी अध्ययन किया हैं। पर फिर भी मुझे इनसे कोई संतुष्टि नही मिली। ज्योतिष विज्ञान के द्वारा सब-कुछ जानने के बाद भी एक अधूरा सा पन महसूस होता था। ऐसे में सत्य की खोज करते-करते ध्यान और दर्शन-शास्त्र से जुड़ गया। यहाँ मैंने ईश्वर के अनेक नियमों को जाना, पर फिर भी जब तक उसको ना पा लूँ तब तक अधूरा ही हूँ।
मित्रों सत्य की खोज और "जीवन" के वास्तविक स्वरुप को समझने की कला ही "दर्शन" हैं। जो व्यक्ति ज्ञान को प्राप्त करने तथा नई-नई बातों और रहस्यों को जानने में रूचि रखता हैं, और फिर भी उसकी जिज्ञासा शांत नही होती, वो दार्शनिक कहलाता हैं। दर्शन का आरम्भ जिज्ञासा से होता हैं। बिना ईच्छा या जिज्ञासा के ज्ञान संभव नहीं। जीवन क्या हैं, आत्मा क्या हैं, परमात्मा क्या हैं, जीवन का आदि अंत सत्य क्या हैं? यही दर्शन का विषय हैं।
राधे-राधे...

22 नवंबर 2017

सफर, प्रारब्ध से परिणामों तक का...Part-3

नमस्कार दोस्तों,

दोस्तों पिछले दो आर्टिकल में मैंने आपको बताया कि हम सभी प्रारब्ध से बने स्वभाव से व्यक्ति, वस्तु, कर्म इत्यादि का चुनाव कर उनके आभामण्डल से प्राप्त होने वाली ऊर्जा के सहारे प्रारब्ध के निर्धारित परिणामों तक पहुँचते हैं। कहने का मतलब हम उन्ही वस्तु, व्यक्ति, कर्म इत्यादि को चुनते हैं जिनकी ऊर्जा की हमारे प्रारब्ध की आवश्यकता होती हैं।

इसके साथ-साथ पिछले पार्ट में मैंने बहुत से ऐसे कर्मो के उदाहरण भी बताये जिनके कारण भविष्य में हमे बुरे परिणाम मिलते हैं। दोस्तो जैसे जन्मपत्री, हस्तरेखा इत्यादि से भविष्य देखा जाता हैं ठीक इसी प्रकार ऊर्जा-विज्ञान के ज्ञान द्वारा किसी व्यक्ति में कर्मों इत्यादि को देखकर उसके भविष्य का पता चल जाता हैं।

दोस्तों प्रारब्ध से परिणामों का सफर इसी प्रक्रिया के तहत आगे बढ़ता हैं। हमारे सम्पर्क में आने वाली हर वस्तु, व्यक्ति, विषय की ऊर्जा का प्रभाव हमारे आभामण्डल पर पड़ता हैं और इन्ही से ऊर्जा पाकर हम परिणामों का सफर तय करते हैं। हमारे मन-मस्तिष्क पर हमारे आस-पास रहने वाले लोगों और वस्तुओं की ऊर्जाओं का प्रभाव इतना सूक्ष्म तरीके से पड़ता हैं, जिसकी भनक तक हमारे जाग्रत मन(कोंसियसनेस) तक को नही पड़ पाती।

आइये आभामण्डल के बारे में कुछ विस्तार से समझते हैं कि कैसे हर वस्तु, व्यक्ति, कर्म इत्यादि की ऊर्जा हमे प्रभावित करती हैं।

दोस्तों संसार मे हर जीव, व्यक्ति, वस्तु, वनस्पति, पेड़, पौधे, पहाड़, घर, दुकान ,ऑफिस, का एक आभामण्डल होता हैं। आभामण्डल वस्तु, वनस्पति, जीव इत्यादि के चारों तरफ गोलाकार आकृति लिये अदृश्य चुम्बकीय तरंगों का एक घेरा होता हैं। इस घेरे में उस वस्तु, वनस्पति, जीव इत्यादि के गुण इत्यादि का डेटा चुम्बकीय तरंगों के रूप में विद्यमान होता हैं। हर वस्तु, वनस्पति, जीव इत्यादि अपने आभामण्डल में समाहित इन चुम्बकीय तरंगों द्वारा अपने गुण-अवगुण का प्रभाव अपने आस-पास के वातवरण में छोड़ते हैं। जैसे चंदन की लकड़ी जहाँ पड़ी होती हैं वहाँ अपनी खुशबू फैला देती हैं, पर क्या इस खुशबू का कोई रूप दिखाई देता हैं ? या क्या खुशबू की तरंगें हमे आती हुई दिखती हैं ? नही दिखती ना... पर फिर भी चन्दन की उपस्थिती का प्रभाव वहाँ के वातवरण में मेहसूस होता हैं, उसका प्रभाव वहाँ के वातावरण को प्रभावित करता हैं। ठीक ऐसे ही हर संसार की हर वस्तु, वनस्पति, जीव इत्यादि की उपस्थिति अदृश्य चुम्बकीय तरंगों के द्वारा अपने गुण-अवगुण का प्रभाव वहाँ के वातावरण पर छोड़ती हैं।

यहाँ एक बात बता देता हूँ कि संसार मे व्याप्त हर वस्तु, वनस्पति, जीव इत्यादि की चुम्बकीय तरंग की एक अलग गन्ध भी होती हैं। हमारे मस्तिष्क में जिन तरंगों की जानकारी पहले से अपडेट होती हैं उन तरंगों को हमारी नासिका के सेंसर रीड कर डिकोड कर देते हैं। पर जिन वस्तु, वनस्पति, जीव इत्यादि की तरंगों की जानकारी मस्तिष्क को नही होती उनको नासिका के सेंसर डिकोड नही कर पाते, पर... फिर भी उसकी उपस्थिती का प्रभाव हमारे स्वभाव पर ओर आस-पास के वातावरण पर जरूर पड़ता हैं। अगर इस सिद्धांत पर आपको विश्वास नही होता तो श्वान(कुत्ते) की तरफ ध्यान दीजिये, श्वान संदिग्ध व्यक्ति की गंध की तरंगों से ही उस व्यक्ति को पकड़ पाता हैं।

कथाओं में एक ऐसा प्रसंग मैने सुना था कि..
एक समय की बात हैं, नारद ऋषि भगवान विष्णु से मिलने विष्णुलोक गये। भगवान विष्णु ध्यान में लीन थे। माँ लक्ष्मी ने विधिवत आदर-सत्कार कर उन्हें आसन दिया।
पर उनके प्रस्थान करते ही द्वारपालों को बुलाकर उस स्थान की अच्छे से सफाई कराई। जाते-जाते इस घटना को नारद ऋषि ने देख लिया, ओर पुनः जाकर पूछा कि माते, मैं जिस आसन पर बैठा उसकी इतनी सफाई का क्या कारण? तब माँ लक्ष्मी ने बताया कि ऋषिवर प्रथम तो आप निगुरे हैं, आपका कोई गुरु नही, और दूसरा स्वभावगत आप इधर की बात उधर करते हैं, इसलिये जिस आसन पर आप विराजे थे उस जगह आपके आभामण्डल की तरंगें उपस्थित थी, और हमारे लोक में आपके स्वभाव की इन तरंगों के प्रभाव से कोई विवाद न हो इस हेतू यह साफ-सफाई की गई।

दोस्तों कहने का मतलब ये हैं कि "आभामण्डल" के प्रभाव से जब भगवान भी नही बच पाते तो हम इंसान क्या चीज हैं। अक्सर आपने देखा होगा कि बड़े-बड़े सन्त महापुरुष आम लोगों से एक सीमित दूरी बनाये हुए रखते हैं, पता हैं क्यों ? वे जानते हैं कि भले ही वे कितने भी ज्ञानी क्यों न हो... पर आम व्यक्ति के नकारात्मक आभामण्डल के प्रभाव से वे भी नही बच पायेंगे।

दोस्तो जो लोग आभामण्डल ओर ऊर्जा के जानकार होते हैं वे अपने इस ज्ञान का बखूबी लाभ उठाते हैं। कुछ समय पहले हमारे देश के प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी के सूट की नीलामी करीब 4.31 करोड़ में सम्पन्न हुई, जब कि सूट की कीमत मात्र 10 लाख रुपये थी। तो जिस व्यक्ति ने सूट खरीदा, क्या वो जानता नही था कि इस सूट की कीमत मात्र 10 लाख हैं ? वह जानता था... पर उसने दाम सूट के नही दिये... बल्कि उसने सूट में समाहित मोदी की उस ऊर्जा के दाम दिये जिस ऊर्जा से आज सम्पूर्ण विश्व प्रभावित हैं। 

दोस्तों बड़े-बड़े लोगों के प्रयोग की हुई छोटी से छोटी वस्तु भी करोड़ो रुपयों में नीलाम होती हैं, और ये दाम उस वस्तु का नही... बल्कि उसमे समाहित ऊर्जा का होता हैं।

तो दोस्तों इन उदाहरणों से ये बात आप अच्छे से समझ गये हैं कि हर वस्तु, वनस्पति, जीव इत्यादि अपने गुण-अवगुण का प्रभाव उपस्थित वातावरण में छोड़ते हैं, और उनका अच्छा-बुरा प्रभाव हमारे मन पर पड़ता हैं।

मित्रों अगले आर्टिकल में इस विषय सम्बन्धी और चर्चा करेंगे कि हमें कैसे लोगों के साथ रहना चाहिये, अच्छे लोगों की ऊर्जा का कैसे लाभ उठाना चाहिये और बुरे लोगों की ऊर्जा को कैसे नष्ट करना चाहिये।

राधे_राधे... 

सफर, प्रारब्ध से परिणामों तक का...Part-2

नमस्कार दोस्तों,

दोस्तों जैसा कि मैंने पिछले आर्टिकल मे बताया कि हम प्रारब्ध के अनुसार उन्ही वस्तुओं, कर्मों, व्यवसाय, मित्रों और रिश्तेदारों के चुनाव करते हैं जिनसे मिलने वाली ऊर्जा भविष्य में हमें प्रारब्ध के निर्धारित परिणामों तक ले जाती हैं। अमूमन संसार के सभी लोग प्रारब्ध के प्रभाव से ही स्वभाव के मार्ग से व्यक्ति, वस्तु, कर्म इत्यादि का चयन कर... उनके आभामण्डल से मिलने वाली ऊर्जा पाकर ही परिणामों तक का सफर तय करते हैं।

दोस्तों जिनका प्रारब्ध अच्छा होता हैं वे सकारात्मक ऊर्जा वाली वस्तुओं का चयन ओर प्रयोग करते हैं, वे सकारात्मक शब्दों का प्रयोग करते हैं, वे सकारात्मक लोगों के साथ रहना पसंद करते हैं... कुल मिलाकर वे लोग उन्ही व्यक्ति, वस्तु, कर्म इत्यादि का चुनाव करते हैं जिनसे सकारात्मक ऊर्जा का उत्सर्जन होता हैं। और उसी सकारात्मक ऊर्जा को पाकर वे प्रारब्ध के निर्धारित अच्छे परिणामों को प्राप्त होते हैं।

इसके विपरीत जिनका प्रारब्ध बुरा होता हैं वे लोग उन व्यक्ति, वस्तु, कर्म इत्यादि का चुनाव करते हैं जिनसे नकारात्मक ऊर्जा का उत्सर्जन होता हैं।

अगर व्यक्ति, वस्तु, कर्म इत्यादि का "चुनाव" ऊर्जा के सिद्धांत को ध्यान में रखकर किया जाये तो प्रारब्ध के बुरे परिणामों को काटा जा सकता हैं।

दोस्तों चौरासी लाख योनियों में मनुष्य योनि को छोड़कर अन्य सभी योनियां मात्र भुगतने के लिये होती हैं, ईश्वर ने मात्र मनुष्य योनि में ऐसी सुविधा प्रदान की हैं जिसमे जीव इच्छा बल को पैदा कर इस ज्ञान तक पहुँचता हैं और व्यक्ति, वस्तु, कर्म इत्यादि का सही चुनाव कर प्रारब्ध को दबाने में कामयाब हो सकता हैं।

दोस्तों आज आप जो भी लोग मेरे इस आर्टिकल को पढ़ कर ज्ञान प्राप्त के रहें है, आपके स्वभाव की यह घटना बता रही हैं कि भविष्य में आप सभी लोग श्रेष्ठ परिणामों को प्राप्त होंगे।

मैं यहाँ कुछ ऐसे कर्मो इत्यादि का जिक्र कर रहा हूँ जिनके परिणाम 100% नकारात्मक ही आते हैं। और अगर आपकी दैनिक दिनचर्या के कर्म इनसे मिलते हैं तो उनमें सुधार कर भविष्य में होने वाली हानि से बचा जा सकता हैं।

दोस्तों
जो लोग टूटे-फूटे बर्तन काम मे लेते हैं,
जो घर की दीवार पर बन्द घड़ी रखते हैं,
या जिनके दीवार घड़ी का पेंडुलम रुका होता हैं,
जिनके घर में कांच या दर्पण टूटे हुए होते हैं,
जिनके मोबाइल की स्क्रीन टूटी होती हैं,
टूटा हुआ या खराब केलकुलेटर काम मे लेते हैं,
टूटे हुए पैन काम मे लेते हैं,
जो बच्चे किताबें इत्यादि बिखेर कर रखते हैं,
किताबों पर आवश्यक काँट-छांट करते हैं,
सेकिंड हेंड वस्तुओं को खरीदते हैं,
या निम्न श्रेणी के लोगों के प्रयोग की हुई वस्तुएं खरीदते हैं,
फ़टे पुराने कपड़े पहनते हैं,
बात-बात में असभ्य शब्दों का प्रयोग करते हैं,
जो हर बात में मीनमेख निकालते रहते हैं,
जो हर बात में टांग अड़ाते हैं,
जो घर की साज-सज्जा पर ध्यान नही देते हैं,
जो हाथ पैरों के नाखून समय पर नही काटते हैं,
जो प्रतिदिन स्नान नही करते,
जो बिना हाथ-पैर धोये खाना खाते हैं,
जो बिस्तर पर खाना खाते हैं,
जो लोग रसोई, पूजाघर, ड्राइंगरूम, बेडरूम इत्यादि मुख्य जगहों पर जूते-चप्पल ले जाते हैं,
जिनके घर मे पुराने जूते इत्यादि पड़े रहते हैं,
जो खाना खाते समय बातचीत करते हैं,
जो लोग बिस्तर पर खाना खाते हैं,
जो पूजा-पाठ नही करतें हैं,
जो वास्तु इत्यादि दोष को नही मानते हैं,
जो वास्तु युक्त भवनों में निवास करते हैं,
जिनके घर में नल हमेशा बहता रहता हैं,
जो निम्न श्रेणी के लोगों के साथ उठते-बैठते हैं,
जो चुगलखोर लोगों के साथ रहना पसंद करते हैं,
जो लोगों की बुराई में आनन्द लेते हैं,
लोगों का दुख देखकर उनका मजाक उड़ाते हैं,
जो दूसरों का सम्मान नही करते,
जो ज्योतिष इत्यादि विद्या को फालतू बताते हैं,
जो शास्त्रों में लिखी बातों की अवहेलना करते हैं,
जो ब्राह्मणों ओर पंडितों का अपमान करते हैं,
जो दान-धर्म नही करते हैं,
जो लोग अहंकारी ओर घमंडी होते हैं,
इत्यादि...
ओर भी बहुत सी ऐसी नकारात्मक स्थतियां होती हैं जिनसे मिलने वाली नकारात्मक ऊर्जा भविष्य में बुरे परिणामों को आकर्षित करती हैं।

दोस्तों ऊपर बताई सभी घटनाएँ जीवन में स्वभावगत ही होती हैं। और इस तरह की स्थितियों से मिलने वाली नकारात्मक ऊर्जा हमें बुरे परिणामों की ओर ले जाती हैं। किसी के घर मे पाई जाने वाली इन परिस्थितियों के दोषी घर वाले नही होते, बल्कि ये परिस्थितयां घर मे रहने वाले लोगों के ही स्वभावगत होती हैं, और उनका स्वभाव प्रारब्धगत होता हैं, जिसका काम आपको प्रारब्ध के निर्धारित परिणामों तक पहुंचाने का होता हैं। पर व्यक्ति, वस्तु, कर्म इत्यादि का सही चुनाव कर जीवनशैली को बदल कर श्रेष्ठ परिणामों को पा सकते हैं।

दोस्तों अगले पार्ट में मैं आपको कुछ और मुख्य-मुख्य बातें और उनके पीछे छुपा रहस्य बताने का प्रयास करूँगा हूँ जिसके चलते इसके मूल विज्ञान को जानकर आप "सुखी और सम्रद्ध" जीवन की और अग्रसर होंगे।

राधे_राधे...

सफर, प्रारब्ध से परिणामों तक का...Part-1

नमस्कार दोस्तों,

दोस्तों मैं आपको अक्सर बताता रहता हूँ कि सारा संसार चुम्बकीय तरंगों से संचालित हो रहा हैं। मानव शरीर एक कम्प्यूटर की तरह काम करता हैं। प्रारब्ध का लेखा-जोखा हमारी आत्मा में अदृश्य चुम्बकीय तरंगों के रूप में Save होता हैं, और इन्ही चुम्बकीय तरंगों का सीधा प्रभाव मन पर पड़ता हैं जिससे हमारा "स्वभाव" बनता हैं। हम हमारे "स्वभाव" के मार्ग से ही कर्मों इत्यादि का चुनाव कर प्रारब्ध के निर्धारित परिणामों की यात्रा करते हैं। हमारे काम करने का तरीका, हमारे व्यवसाय का चुनाव, हमारे घर का रहन-सहन, हमारे साथ उठने-बैठने वाले लोग, हमारे घर मे आने-जाने वाले लोग या रिश्तेदार इत्यादि सभी हमारे स्वभावगत होते हैं, और हमारा स्वभाव प्रारब्धगत होता हैं, यानी हमारे स्वभाव को प्रारब्ध गति देता हैं। ओर हमारे इसी स्वभाव की चुनाव प्रणाली से सम्पन्न हर कर्म, वस्तु, मित्र, रिश्तेदार इत्यादि अपनी ऊर्जा देकर हमे प्रारब्ध के निर्धारित परिणामों की ओर पहुँचाते हैं।

दोस्तों यह बात में अक्सर बताता हूँ कि हर वस्तु, वनस्पति, जीव इत्यादि का अपना एक आभामण्डल होता हैं। और उनके सम्पर्क में आने पर उनकी अच्छी-बुरी ऊर्जा का प्रभाव हम पर पड़ता हैं।

हमारा स्वभाव प्रारब्ध के प्रभाव से उन्ही वस्तु, वनस्पति, जीव या परिस्थिती इत्यादि को चुनता हैं जिनसे मिलने वाली ऊर्जा हमे प्रारब्ध के निर्धारित परिणामों तक ले जाती हैं।

हमारा स्वभाव प्रारब्ध के प्रभाव से उन्हीं कर्मो को चुनता हैं जिधर प्रारब्ध को हमें ले जाना होता हैं।
हमारा स्वभाव प्रारब्ध के प्रभाव के चलते उन्ही व्यवस्थाओं में रहना पसंद करता जिनसे मिलने वाली ऊर्जा हमें प्रारब्ध के निर्धारित परिणाम की ओर ले जाती हैं।
हमारा स्वभाव प्रारब्ध के प्रभाव के चलते उन्ही वस्तुओं को खरीदना या रखना पसन्द करता हैं जिनसे मिलने वाली ऊर्जा हमें प्रारब्ध के निर्धारित परिणामों तक ले जाती हैं।
हमारा स्वभाव प्रारब्ध के प्रभाव के चलते उन्ही लोगों के साथ रहना पसंद करता हैं जिनसे मिलने वाली ऊर्जा हमें प्रारब्ध के निर्धारित परिणामों तक ले जाती हैं।

कहने का मतलब...
हमारे द्वारा चुनी गई हर व्यक्ति, विषय, वस्तु, परिस्थिति हमे अपनी ऊर्जा देकर हमें प्रारब्ध के निर्धारित परिणामों तक पहुंचाती हैं। हम उन्ही वस्तु, वनस्पति, व्यक्ति या परिस्थितियों का चुनाव करते हैं जिनकी ऊर्जा की हमारे प्रारब्ध को आवश्यकता होती हैं।

दोस्तों परमात्मा के बनाये इस सिस्टम में प्रारब्ध से परिणामों तक का सफर इसी मार्ग द्वारा सम्पन्न होता हैं। सब कुछ आपके द्वारा ही स्वचलित कार्यप्रणाली द्वारा स्वत: ही सम्पन्न होता हैं, और आपको इसकी भनक तक नही लगती की, जिन कर्मों इत्यादि का चुनाव आप अपने जिस स्वभाव से कर रहे हैं वे सभी वस्तुएँ, व्यक्ति या परिस्थितियां इत्यादि आपको प्रारब्ध के निर्धारित परिणामों तक ले जा रही होती हैं।

दोस्तों जिस मन को आप अपना मानते तो वो तो स्वयं प्रारब्ध के प्रभाव में होता हैं। आप लाख कोशिश कर लो दुःखों को मिटाने की, पर आपका मन आपको वहीं ले जाता हैं जो प्रारब्ध में लिखा होता हैं। इसलिये कहते हैं कि...
कोई लाख करे चतुराई रे...
कर्म का लेख मिटे ना रे भाई...

पर दोस्तों निराश मत होना...
अपने इस आर्टिकल के माध्यम से मैं आपको "कर्म-सिद्धांत" का वो ज्ञान दूँगा जिसे समझकर आप अपने प्रारब्ध के निर्धारित बुरे परिणामों को काटने में सफल हो पायेंगे।

करना सिर्फ इतना ही होगा कि आपको थोड़ा सतर्क होकर अपने आस-पास के वातावरण पर ध्यान देना होगा कि आप अपने आस-पास की वस्तुओं, मित्रों इत्यादि से कैसी ऊर्जा प्राप्त कर रहे हैं। हालाँकि आम तौर पर हमारे आस-पास की वस्तुओं या मित्रों इत्यादि का चुनाव हम हमारे प्रारब्ध के कारण ही करते हैं, पर "ऊर्जा-सिद्धांत" का ज्ञान प्राप्त कर हम सकारात्मक ऊर्जा वाली वस्तुएं, कर्मो या मित्रों इत्यादि का चुनाव कर प्रारब्ध से मिलने वाले बुरे परिणामों को पाने से बच सकते हैं, और अच्छे बेहतर परिणामों की और अग्रसर हो सकते हैं।

दोस्तों इस आर्टिकल के अगले भाग में मैं आपको हमारे द्वारा स्वभाविक तौर पर संपादित होने वाले कुछ ऐसे कर्मों इत्यादि की जानकारी दूंगा जिनकी नकारात्मक ऊर्जा पाकर हम बुरे परिणामों के शिकार होते हैं। ओर साथ-साथ यह भी जानकारी दूँगा की कैसी वस्तुओं या मित्रों इत्यादि को अपनाकर उनकी सकारात्मक ऊर्जा पाकर हम हमारे भविष्य को उज्ज्वल बना सकते हैं।

राधे-राधे... 

21 नवंबर 2017

Sixth Sense

Sixth Sense

दोस्तों Six Sense के रहस्यात्म और एक रोमांचकारी सफर में एक बार फिर आपका स्वागत हैं। मित्रों मेरा ये आर्टिकल धारा-प्रवाह आर्टिकल हैं जिसके 20 पार्ट में लिख चूका हूँ। हालाँकि अपने इस लेख को आगे भी प्रस्तुत कर चूका हूँ, पर पिछली बार जहाँ-जहाँ कुछ कमिया रह गई थी उनका सुधार इस संस्करण में कर दिया गया हैं।

मित्रों अपने जीवन के आज तक के सफ़र में मैंने जो दर्शन किया हैं, जो समझा हैं, जिस सत्य को पहचाना हैं, वो आप भी जाने ऐसा एक सुन्दर प्रयास है मेरा।

वैसे तो पेशे से मैं एक व्यापारी हूँ, पर बचपन से ही खोजी प्रवर्ति का रहा हूँ। अपने जीवन में सुख और सत्य को पाने तलाश में मैं अनेक पंडितो, ज्योतिषाचार्यों, गुरुओं इत्यादि के संपर्क में आया, पर इन सब से मुझे कोई सन्तुष्टि नही मिली। ईश्वर के नियमों और सिद्धांतो को समझने के लिये मैंने स्वयं ने धार्मिक ग्रंथो के साथ-साथ भूत-भविष्य को जानने वाले हस्त-रेखा, ज्योतिष शास्त्र इत्यादि और इनसे सम्बंधित विषयों का भी अध्ययन किया। पर इससे भी मैं सन्तुष्ट नही हुआ क्योंकि मुझे वो नही मिला जिसकी मुझे तलाश थी। ज्योतिष विज्ञान के द्वारा भूत-भविष्य को जानने के बाद भी मुझे एक अधूरा सा पन महसूस होता था। ऐसे में मित्रों सफर चलता गया और सत्य की खोज करते-करते में "ध्यान" और "दर्शन-शास्त्र" से जुड़ गया। ध्यान के माध्यम से मैंने ईश्वर के अनेक नियमों को जाना, कर्म के सिद्धांतो को समझा कि कैसे हम अपने द्वारा किये गए कर्मो से अच्छे-बुरे फल तक का सफर तय करते हैं।

पर दोस्तों जब तक उसको ना पा लूँ तब तक अधूरा ही हूँ।

मित्रों सत्य की खोज और "जीवन" के वास्तविक स्वरुप को समझने की कला ही "दर्शन" हैं। जो व्यक्ति ज्ञान को प्राप्त करने तथा नई-नई बातों और रहस्यों को जानने में रूचि रखता हैं, और फिर भी उसकी जिज्ञासा शांत नही होती, वो दार्शनिक कहलाता हैं। दर्शन का आरम्भ जिज्ञासा से होता हैं। बिना ईच्छा या जिज्ञासा के ज्ञान संभव नहीं। जीवन क्या हैं, आत्मा क्या हैं, परमात्मा क्या हैं, जीवन का आदि अंत सत्य क्या हैं? यही दर्शन का विषय हैं।

राधे-राधे...

Continued Sixth Sense...

Sixth Sense-20

Sixth Sense-20

मित्रों Sixth Sense के पिछले पार्ट में हमने ये जाना कि हमारे जन्म और जन्मपत्री के ग्रह-नक्षत्र निर्धारण में ईश्वर का कोई दखल नही होता, बल्कि ये सब कुछ एक निश्चित प्रोग्रामिंग के तहत संपन्न होता हैं। मित्रों मुझे विश्वास हैं की आप इस सिद्धांत को भलीभाँति समझ चुके हैं।

मित्रों पिछले पार्ट में मैंने बताया की "चित्रगुप्त" और कोई नही बल्कि आपका अंतर्मन ही "चित्रगुप्त" हैं, जो लगातार जन्म से लेकर मृत्यु तक आपके हर कर्म को "गुप्तचित्रों" के रूप में उस कर्म के प्रति बनी आपकी भावनाओं सहित अपनी मैमोरी रिकॉर्ड करता रहता हैं। आपके द्वारा किये जा रहे हर कर्म की लगातार रिकॉर्डिंग हो रही होती हैं। और हर कर्म जिस भावना से किया जाता हैं उन भावनाओं को भी लगातार दर्ज किया जाता रहता हैं।

मित्रों संसार में लोग पाप करते वक्त ये सोचते हैं कि उन्हें कोई नही देख रहा हैं, कुछ भी करो कोई देखने वाला नही हैं,
और ऐसा सोचकर वे दुनिया को धोखा देते रहते हैं।
पर सत्य ये हैं कि...
वे सब लोग दुनिया को नहीं बल्कि खुद को धोखा दे रहे होते हैं।
मित्रों इस बात को अब आप भी जान गए हैं कि ईश्वर ने इस शरीर में एक ऐसा रिकार्डर लगाकर भेजा हैं जो निरन्तर हमारे हर अच्छे-बुरे कर्मों को रिकॉर्ड कर रहा हैं। और साथ-साथ उस पर टैग भी लगा रहा हैं कि ये पाप हैं और ये पुण्य।

जैसे ही आपने चिंटी को मारा वो उसी समय रिकॉर्ड हो गया,
जैसे ही आपने चोरी की वो उसी समय रिकॉर्ड हो गई,
जैसे ही आपने किसी की बुराई की वो भी रिकॉर्ड हो गई,
जैसे ही आपने झूठ बोला वो भी रिकॉर्ड हो गया,
किसी को धोखा दिया वो भी रिकॉर्ड हो गया,

मित्रों इसी रिकॉर्डिंग के साथ आपके भविष्य के परिणामों की प्रोग्रामिंग भी यहीं से शुरू हो जाती हैं। मनुष्य जीवन कर्म-प्रधान, यानी कर्म के बाद फल मिलता हैं। और फल भाव-प्रधान हैं, यानी फल कैसा होगा यह कर्म के प्रति बने भाव पर निर्भर करता हैं। मन में जैसे भावों को रखकर कर्म करते ही उसकी रिकॉर्डिंग हो जाती हैं, और इसी रिकॉर्डिंग साथ-साथ भविष्य के परिणामों की भी प्रोग्रामिंग हो जाती हैं।

मित्रों... जैसे आपने इस आर्टिकल को चुराकर अपने नाम से प्रेषित किया... बस आपके अंतर्मन ने उसे भी रिकॉर्ड कर लिया। और इसके चलते आपके मन ने यह भी समझा की ये मैंने गलत किया हैं, मैं झूठा हूँ। बस मित्रों आपके अंतर्मन का निरंतर ध्यान इस और हो जाता हैं कि मैं झूठा हूँ, जिसके चलते आपके अंतर्मन की एक प्रोग्रामिंग ऐसी हो जाती हैं कि आप स्वयं अपने अनुभव पर कभी भी ब्रम्हांड के रहस्यों को नही जान पाते। आपकी इस गलत प्रोग्रामिंग के चलते आप कभी भी भविष्य में से सत्य को निकालने ने कामयाब नही हो सकते।

अब मित्रों आप चाहे जो कुछ भी करो, आपके "मन" को किसी कर्म से कोई मतलब नही, इसका काम तो हैं निरन्तर रिकार्ड करना। और ये भी तय करना इसी का काम हैं कि कोनसा काम सही हैं और कोनसा गलत हैं, और इस सही और गलत कर्म की रिकॉर्डिंग के साथ-साथ भविष्य की प्रोग्रामिंग भी हाथोंहाथ होती रहती हैं। मित्रों सारा का सारा सिस्टम आपमें ही सेट हैं।

मित्रों इस मन की शक्ति इतनी हैं कि आपके अच्छे-बुरे कर्मो को पाप-पुण्य के रूप में तय करने का अधिकार भी इसके पास ही हैं। ये जिस कर्म को पाप मानता हैं वो कर्म पाप हो जाता हैं, और जिस कर्म को पुण्य मानता हैं वो पुण्य कर्म ही हो जाता हैं। हालाँकि ईश्वर ने तो पाप-पुण्य की कोई परिभाषाएँ नही बनाई। पर इन सारी मान्यताओं को हमारे अवचेतन-मन में कथा-कहानियों और धार्मिक ग्रंथों द्वारा प्रोग्राम कर दिया जाता हैं। और इसी प्रोग्रामिंग के अनुसार हमारा मन हर कर्म के पाप-पुण्य को तय करता हैं।

मित्रों सत्य तो यही हैं कि परमात्मा ने पाप-पुण्य की भी कोई परिभाषा तय नही की। इनकी परिभाषा तो हमारे ऋषि-मुनियों और दार्शनिकों ने तैयार की हैं। मित्रों हमारे ऋषि-मुनियों और दार्शनिकों ने इन धर्म-ग्रंथो की रचना इस बात को ध्यान में रखकर की कि मानव-समाज सुख शांति से एक अनुशासित जीवन जी सके। और इसी के चलते उन्होंने सारे तथ्यों को ध्यान में रखते हुए अच्छे-बुरे कर्मों को इन कथा-कहानियों के सहारे सभी पाप-पुण्यों को परिभाषित कर दिया। मित्रों ये कथा-कहानिये और कुछ नही, बस हमारे मस्तिष्क को प्रोग्राम करने की एक प्रोग्रामिंग लेंग्वेज हैं।

मित्रों ये सिद्धांत बहुत हैरान कर देने वाला हैं कि...
ईश्वर का आपके द्वारा किये गए इन कर्मो के, पाप-पुण्य होने और न होने से भी कोई ताल्लुक नहीं होता। मित्रों मैं जानता हूँ कि ये तर्क आपके लिये बिल्कुल मानने योग्य नही हैं। आप ऐसा मान ही नही सकते की किसी कर्म के पाप और पुण्य का होना भी हम ही तय करते हैं। पर सत्य तो यही हैं।


जैसे आपने चिंटी को मारा तो आपको धर्म-ग्रंथो में बताया गया हैं कि ये पाप हैं, जिसके चलते आपके ही मन द्वारा वो पाप-कर्म के रूप में दर्ज कर लिया गया, और इसके चलते आपको पाप का फल भोगना पड़ेगा।
अब दूसरी और किसी जीव की बली चढ़ाई तो धर्म-ग्रंथों में उसे पुण्य-कर्म बताया गया, जिसके चलते आप ही के मन ने उसे पुण्य-कर्म के रूप में दर्ज किया गया, और इसके चलते आपको पुण्य फल मिलेगा।
मित्रों इन दोनों बातों में कर्म तो एक सा ही था, "जीव हत्या", पर इन दोनों कर्मो को धर्म-शास्त्रों में अलग-अलग भाव के साथ परिभाषित किया गया हैं। और शास्त्रों की भाषा को मन ने विश्वास के साथ माना। इसलिए मन ने जिसे पाप माना वो पाप हो गया और मन ने जिसे पुण्य माना वो पुण्य हो गया।

मित्रों मैं आगे भी इस बात के उदाहरण दे चूका हूँ कि हमे कर्मों का फल नही बल्कि भावों का फल मिलता हैं, कर्म तो मात्र एक साधन हैं फल तक पहुँचने का। आगे आने वाले पार्ट में हम इस बात पर भी चर्चा करेंगे कि कैसे ज्योतिषीय उपायों के जरिये हम हमारे भावों की दिशा को बदल कर उन परिणामों को भी प्राप्त कर सकते हैं जो हमारी जन्म-पत्री में नही हैं।

मित्रों पाप-पुण्य, अच्छा-बुरा सब कुछ तय करने वाला ये मन हैं। बस हमें इसकी शक्तियों का ज्ञान नही। मित्रों मन की शक्तियों पर किसी भी शास्त्र में इतनी सूक्ष्म व्याख्या नही की गई हैं। क्योंकि ये ज्ञान संसार के लिए हानिकारक भी हो सकता हैं। पर मुझे पता हैं इस आर्टिकल में लिखी बातें वे ही लोग समझ पायेंगे जो इस ज्ञान के असली हकदार हैं।

राधे-राधे....


Sixth Sense-19

Sixth Sense-19

मित्रों Sixth Sense के पिछले पार्ट में मैंने कुछ ऐसी बातों पर जिक्र किया जो बड़ी हैरान कर देने वाली थी। जैसे कि ईश्वर का कोई दखल नही हमारे सुखी या दुखी होने में, ईश्वर का कोई दखल नहीं हमारे जन्म या "जन्म-पत्री" के ग्रह-नक्षत्र निर्धारण में। और मित्रों ये ही नही में तो इतना भी कहता हूँ कि हमारे द्वारा किये गए कर्मो के पाप-पुण्य होने का निर्धारण भी हम ही करते हैं, कि ये पाप हैं और ये पुण्य हैं, ईश्वर का तो इसमें भी कोई दखल नहीं होता। सारी की सारी प्लानिंग हमारी ही हैं, सारी की सारी प्रोग्रामिंग हमारी ही हैं। इस ब्रम्हांड में सभी-कुछ परफेक्ट नियमों के आधार पर ही संपन्न हो रहा हैं।

आइये इस रहस्य से पर्दा हटाता हूँ।

मित्रों आज तक हम सब ये सुनते आये हैं कि मरने के बाद स्वर्ग में बैठे कोई "चित्रगुप्त" जी हमारे कर्मों का लेखा-जोखा करके ये तय करेंगे की हमने क्या पाप किये हैं और क्या पुण्य किये हैं। और उसी के अनुसार वे हमारे अगले जन्म की ग्रह-दशा या दिशा तय करेंगे। और शास्त्रों में भी कुछ ऐसा ही बताया गया हैं।

मित्रों सच्चाई तो ये हैं कि स्वर्ग में "चित्रगुप्त" नाम का ऐसा कोई अधिकारी हैं ही नही। तो क्या सभी शास्त्र झूठे हैं ? नही बिल्कुल नहीं, शास्त्रों में कुछ भी गलत नही लिखा हैं... बस फर्क इतना ही हैं कि शास्त्रों के श्लोको का अनुवाद, अनुवादकर्ताओ ने अपनी-अपनी शब्दावली में प्रस्तुत किया हैं।

मित्रों अपने जीवन पर थोडा गहराई में जाकर "ध्यान" दीजिये, और देखिये... कि कोई ऐसा हैं... जो जन्म से लेकर मृत्यु तक आपके साथ हैं, वो हर-पल, सोते-जागते, उठते-बैठते, हर-पल आपके साथ हैं। आप सो जाते हो फिर भी वो जाग रहा होता हैं।
जो निरन्तर आपको और आपके कर्मों को देख रहा हैं।
जो जन्मों-जन्मों से आपके साथ हैं।
आखिर कौन हैं वो ???
मित्रों वो और कोई नही...
आपका "अंतर्मन" हैं...
बचपन से लेकर अब तक आपका अंतर्मन आपकी सारी बातों को जानता हैं, आपके सारे कर्मों को जानता हैं, आपके सारे अच्छे-बुरे कर्मो का लेखा-जोखा इसी अंतर्मन के पास हैं। मित्रों बचपन से लेकर मृत्यु तक आपका मन पल-पल की रिकॉर्डिंग कर रहा होता हैं। और ये ही नही आपका हर कर्म... मन की मैमोरी में उस कर्म को "चित्रों" साथ... उस कर्म से जुड़ीं उसकी भावना (फिलिंग) के साथ Save कर रहा होता हैं। आपने आज तक जो पाप किया हैं वो आपके मन को पता हैं। आपने जो पुण्य किये वो आपके मन को पता हैं। आपके जीवन की हर घटना की जानकारी और उससे सम्बंधित बने भाव का हर-पल आपका मन रिकॉर्ड कर रहा होता हैं। और....
मरणोंपरान्त आपके मन में रिकॉर्ड इन्ही ""गुप्तचित्रों"" और इनके साथ जुडी भावनाओं (फिलिंग) के आधार पर ही आपके अगले जन्म का निर्धारण आपके द्वारा ही हो जाता हैं। मृत्यु के समय इस जन्म में बने सभी भावों के अनुसार उनके फलों को अगले जन्म में ट्रांसफर कर दिया जाता हैं। मित्रों सारा का सारा कंप्यूटर सिस्टम आपमें ही सेट हैं। सब का सब एक निश्चित प्रोग्रामिंग के तहत संपन्न होता जाता हैं। आप क्या सोचते हो कंप्यूटर आप ही बना सकते हो ? कंप्यूटर प्रोग्रामिंग सिर्फ मनुष्य को ही आती हैं। अरे कंप्यूटर... इंसान ने बनाया और इंसान को भगवान् ने बनाया, तो इंसान को बनाने वाला भगवान् क्या प्रोग्रामिंग नही समझता ? हा हा हा...

मित्रों स्वर्ग में बैठा ये ""चित्रगुप्त"" और कोई नही... बल्कि जन्म से लेकर मृत्यु तक... आपके अंतर्मन में रिकॉर्ड हुए इन "गुप्तचित्रों" को हीं "चित्रगुप्त" कहा गया हैं। और इन्ही गुप्तचित्रों के साथ-साथ हमारे पाप-पुण्य का भी ब्यौरा जुड़ा होता हैं जो हमारे द्वारा ही डाला होता हैं। भाई आप जो भी कर्म कर रहे हो वो आपको पता है कि कोनसा पाप हैं और कोनसा पुण्य हैं। जैसे आप झूठ बोल रहे हो या चोरी कर रहे हो.. तो आपके मन को पता है की आप ये पाप कर रहे हो। बस फिर क्या सिस्टम हमारे द्वारा ही फीड किये हुए पाप-पुण्य का आंकलन कर अगली दिशा तय कर देता हैं।

मित्रों गीता के आँठवे अध्याय के छटे श्लोक में देखो क्या लिखा हैं। हालाँकि मुझे संस्कृत नही आती हैं पर गीता पढ़ते समय मैं उसके हिंदी में दिये अनुवाद को गहराई में जाकर समझने का प्रयास करता हूँ।

यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम्।
तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः॥८- ६॥

इसका अर्थ हैं कि मनुष्य अपने जीवन के अंतकाल में अपने मन में जिस-जिस भी भाव का स्मरण करता हुआ शरीर त्याग करता है वह उस उसको ही प्राप्त होता है क्योंकि वो सदा उसी भाव से भावित है।


यानी मरते समय हमारे मन में अलग-अलग विषयों के प्रति जैसा-जैसा भाव होता हैं उन्ही भावों के अनुसार अगले जन्म में हम उसी को प्राप्त होते हैं। जैसे मरते समय किसी व्यक्ति के अंतर्मन में संतान के प्रति ऐसा भाव बन जाये की "सन्तान ना होती तो अच्छा होता" तो उसके इसी भाव के अनुसार ""जन्मपत्री"" के पंचम भाव से पीड़ित वाली ग्रह-स्तिथि में जन्म दे दिया जाता हैं। और अगले जन्म में उसके सन्तान का अभाव रहता हैं, क्योकि मरते समय उसका सन्तान न होने का भाव बन गया। और अगर कोई व्यक्ति किसी दूसरे की सन्तान को देखकर मन मैं ऐसा भाव बना लें की मुझे अगले जन्म में ऐसी आज्ञाकारी सन्तान मिले तो अगले जन्म में उसे भावानुसार वैसी ही संतान सन्तान का सुख मिलता हैं।

मित्रों मैंने मात्र एक छोटा सा उदाहरण प्रस्तुत किया हैं। अगला जन्म और जन्मपत्री के ग्रह-नक्षत्रों का चुनाव मात्र एक संतान के विषय भाव से संपन्न नही होता बल्कि मरते समय उसके अंतर्मन में जीवन के अनुभव से जिस-जिस विषय के प्रति जैसा-जैसा भाव बनता हैं उन सभी भावों के अंत में जो फल निकलता हैं उसी के अनुसार परफेक्ट नियमों के आधार पर जातक स्वयं अपनी जन्मकालीन "ग्रह-नक्षत्र" स्तथि का चुनाव कर सटीक समय पर उस जगह जन्म लेता हैं जो उसका भाव होता हैं। मित्रों इन जन्मकालीन "ग्रह-नक्षत्र" स्तथि के चुनाव में ईश्वर का कोई दखल नही होता हैं, ये सब का सब सिस्टम और नियमों के मुताबिक़ ही संपन्न होता हैं।

(मित्रों एक बात ध्यान रखे, यहाँ संतान सम्बंधी मैंने मात्र एक छोटा सा उदाहरण प्रस्तुत किया हैं, पर इसके अलावा और भी बहुत से कारण होते हैं जिनसे संतान का अभाव रह सकता हैं। आगे आने वाले भागों में हम उनकी भी चर्चा करेंगे।)

मित्रों मेरे शब्दों में कहूँ तो मन की माया बड़ी निराली हैं, मन ऊर्जावान हैं, और इसका ध्यान जिस और होता हैं ऊर्जा का प्रवाह भी उधर ही हो जाता हैं। संसार में जो भी कुछ घटित हो रहा हैं उसका मूल कारण हमारा ""ध्यान"" हैं, इसकी भी चर्चा हम आने वाले भागों में करेंगे।

मित्रों अब तो आपको समझ में आ गया होगा की हमारे जन्म और जन्मपत्री के निर्धारण में ईश्वर का कोई दखल नही होता... सबकुछ हमारे ही द्वारा संपन्न होता हैं। अगले पार्ट में इस बारे में हम और चर्चा करेंगे जिसमे पाप-पुण्य का निर्धारण हमारे द्वारा कैसे होता हैं, और जन्मकालीन ग्रहों का या पिछले जन्म के भावों का कैसा प्रभाव इस जन्म में होता हैं, और किन उपायों से उन पिछले जन्म के बुरे भावों के प्रभाव को काटा जा सकता हैं, या ज्योतिष की भाषा में कैसे ग्रहों के बुरे प्रभाव से मुक्त हुआ जा सकता हैं।

राधे-राधे...











Sixth Sense-18

Sixth Sense-18

मित्रों पिछले पार्ट में मैंने मन के कुछ रहस्यों पर बात की और इन्द्रिय, मन, बुद्धि, आत्मा, परमात्मा की कार्यप्रणाली की कुछ सूक्ष्म व्याख्या की। हालाँकि उस कार्यप्रणाली पर बहुत सी चर्चा अभी बाकी हैं। बहुत से उदाहरणों से आपको अवगत कराना जरुरी हैं। विषय बहुत वृहद और बड़ा ही जटिल हैं, जिसकी चर्चा बाद में चलती रहेगी, क्योंकि ये विषय बहुत गहरा हैं।

अभी हम उस विषय पर चर्चा करेंगे कि जीवन में सुख-दुःख या शुभाशुभ परिस्थितियों के लिये कौन जिम्मेवार होता हैं। और क्या दखल होता हैं ईश्वर का हमारे जीवन या जन्मपत्री के निर्माण में।

मित्रों सत्य ये हैं कि आज तक मैंने बहुत घुमा-फिरा के बात की हैं। पर क्या करूँ इन बातों को भी समझना जरुरी था। आज जो सत्य मैं आपको बताने वाला हूँ अगर वो पहले बता देता तो आप उस पर विश्वास नही करते और मुझे एक सरफिरा आदमी समझ कर आगे ही नही बढ़ पाते। मित्रों इतने बड़े सफर का "सार" मात्र कुछ शब्दों में ही तय हो जाता हैं। वो क्या ???

वो ये हैं कि....
आपकी हर परिस्थिति का कारण आपका मन हैं।
सारे दुखों और सुखों का कारण आपका मन हैं।
आपके जन्मकालीन ग्रहों की स्तिथि का कारण आपका मन हैं।
ईश्वर का आपकी "जन्मपत्री" के निर्माण में कोई दखल नही हैं।
ईश्वर का आपके "सुख-दुःख" में भी कोई दखल नही हैं।
और ये हीं नही उस ईश्वर का नाम या स्वरूप् इत्यादि का चुनाव भी आपके मन द्वारा ही संपन्न होता हैं।
पाप और पुण्य का निर्धारण भी आपका ही मन कर रहा हैं।

अब जब सब-कुछ "मन"तय कर रहा हैं
तो परमात्मा कौन हैं ?
ईश्वर कौन हैं ?
खुदा कौन हैं ?

मित्रों ईश्वर या खुदा और कोई नहीं
बस आपका ये """मन""" हीं हैं।

अरे ईश्वर मंदिर में नही मन के अंदर बसता हैं।
खुदा मस्जिद में नही खुद में बसता हैं।
ये मंदिर और मस्जिद तो मात्र उस मन में अंदर बैठे परमात्मा और खुद में बैठे खुदा को याद करने के प्रयोजन मात्र हैं। कोई भी धर्म किसी पाखण्ड के लिए नहीं बनाया गया बल्कि सभी धर्म उस परमात्मा से जुड़े रहने के अलग-अलग प्रयोजन हैं। पर जैसे-जैसे समय चलता रहा वैसे-वैसे कुछ लोगों ने अपने स्वार्थ के लिये धर्म के साथ कुछ पाखंड जोड़ दिये, और अपने अलग-अलग पंथो की स्थापना कर दी। आज भी बहुत से Philosopher संगत की पंगत बैठाकर लोगों को लूट रहे हैं और कुछ टेलीविजन के माध्यम से लोगों का ध्यान अपनी और कर समाज को भटका रहे हैं।

मित्रों इस संसार में तो सभी कुछ परफेक्ट नियमों के आधार पर संपन्न हो रहा हैं। बस हमें नियमों और सिद्धांतो की जानकारी नहीं हैं। हालाँकि आज तक Six Sense के माध्यम से मैं आपको बहुत सारे कर्म सिद्धांतो से अवगत करा चूका हूँ। पर अभी भी बहुत सारी बातें बाकी हैं।

मित्रों आज आप जिस स्तर पर भी हैं, वो आपके ही अवचेतन मन की प्रोग्रामिंग का परिणाम हैं। ये भी जरुरी नहीं की आज आप जो भोग रहे हैं वो आपके जन्मपत्री के बुरे ग्रह-नक्षत्रों का परिणाम हो, ग्रह-नक्षत्रों का प्रभाव मात्र आपके मस्तिष्क तक ही सीमित होता हैं। और इसके चलते आप अपने ही स्वभाव द्वारा फलों की यात्रा करते हैं। पर ऐसे में किसी योग्य गुरु या ज्योतिषी का मार्गदर्शन पाकर आप अपने स्वभाव और विचारों में परिवर्तन लाते हैं तो कर्मो की दिशा बदल जाती हैं जिससे अच्छे परिणामों की प्राप्ति होती हैं। दोस्तों योग्य गुरु या सत्संग से हुए विचारों का परिवर्तन कुंडली के सारे के सारे कुयोंगो को धरा का धरा रख देता हैं। ज्योतिष का विकास-विस्तार मात्र भूत-भविष्य को जानकर बैठ जाने के लिए नही हुआ, बल्कि व्यक्ति के जीवन को सुधारने के लिये हुआ हैं।

मित्रों हर अच्छी-बुरी स्तिथि या परिस्तिथियाँ आपकी मानसिक सोच से ही तैयार होती हैं। इस जन्म को आपने ही तय किया हैं। आपके जन्मकालीन ग्रह-नक्षत्रों की स्तिथि का निर्धारण भी आपके मन ने ही किया हैं। आपकी जन्म-पत्री के निर्माण में ईश्वर की कोई भूमिका नही हैं।

सब कुछ परफेक्ट नियमों के अनुसार हो रहा हैं।

पर ये नियम क्या हैं ?
ये कैसे काम करता हैं ?
और क्यों हमें इन ग्रह-नक्षत्र की शुभाशुभ स्तिथियों में जन्म दे दिया जाता हैं ?

इस परफेक्ट नियम को अगले पार्ट में समझने का प्रयास करेंगे।

मित्रों जो मैंने आज बताया हैं वो बहुत हट के हैं। मैं आपको एक बात बता दूँ की मैं कोई नास्तिक व्यक्ति नही हूँ, और ना ही में किसी को अपने धर्म से हटने का बोल रहा हूँ। मैं राम-कृष्ण या जो भी हिन्दू देवी देवता हैं उन सभी में अपने ईश्वर को देखता हूँ, मैं खुदा में उसे देखता हूँ, मैं यीशू में उसे देखता हूँ... और मैं मेरे घट में और आपमें भी उसे ही देखता हूँ। मित्रों मेरे और आप सभी के मन में बसा ईश्वर निराकार हैं। पर उस निराकार को कोई साकार रूप में देखता हैं तो भी गलत नही और कोई निराकार में मानता हैं तो भी गलत नहीं। पर सत्य तो ये भी हैं कि उस निराकार को पाने के लिये आपको किसी साकार रूप का सहारा लेना जरुरी हैं, क्योंकि बिना साकार के निराकार की प्राप्ति संभव नही।

अंत में इतना ही कहूँगा कि...

मन की आँटी अटपटी, जटपट पढ़े न कोय।
मन की खटपट जो मिटे, चटपट दर्शन होय।।

मित्रों दिनभर चल रही इन खटपटों से हटकर थोड़ा अंतस में उतरो। इस मन की गहराई में हजारों राज छुपे हैं। मन की माया बड़ी निराली हैं। ये मन बहुत शक्तिशाली हैं। इस मन से सब-कुछ सम्भव हैं। बस हमारे पास इसकी शक्तियों के ज्ञान का अभाव हैं। पर दोस्तों मन के इस सफर के साथ आप मेरा साथ निभाते रहिये... मैं जानता हूँ कि "आत्म-दर्शन" अब आप से और मुझे कोई ज्यादा दूर नहीं।

राधे-राधे...










Sixth Sense-17

Sixth Sense-17

मित्रों Sixth Sense के पिछले पार्ट में हमने मन को काबू करने के एक सामान्य सिद्धांत को समझा। हालाँकि फ़ॉर्मूला उन्ही पुराने सिद्धांत पर आधारित था, पर उन तरीकों को पढ़कर ही आज के लोग भाग जाते हैं इसलिये मैंने उसे आज की भाषा में अपडेट किया हैं।

मित्रों Sixth Sense के इतने लम्बे सफ़र में आज तक मैंने जो चर्चा की वो सब "मन" के ऊपर थी, कि जो भी हैं वो ये "मन" हैं, और ये "मन" जब किसी बात पर लग जाता हैं या किसी बात को मान लेता है, तब जब तक वह कार्य पूरा नही होता तब तक खड़ा रहता हैं। मित्रों मन ने जो मान लिया वो लागू हो जाता हैं। सब कुछ ये मन ही तय करता हैं। अच्छा होना या बुरा होना सब कुछ मन तय करता हैं। मित्रों हैरानी की बात तो ये हैं कि हमारे द्वारा किये गये कर्मो के पाप-पुन्य का भी निर्धारण भी हमारा मन ही करता हैं। इस बात का प्रमाण आपको गीता में भी मिल जायेगा।

मित्रों जिन लोगों ने गीता ध्यान से पढ़ी हैं उन्हें ये बात पता होगी कि कुरुक्षेत्र में जब अर्जुन ने श्री कृष्ण को धनुष उठाने को मना कर दिया, और कहा कि हे केशव युद्ध करके मैं इन महारथियों या अपने ही अनुजों का संहार कर पाप का भागी बनना नही चाहता। इन सब की हत्या से हम सभी पांडवों को जीवहत्या का पाप लगेगा और इस कारण हमें नरक भोगना पड़ेगा, इसलिये में किसी भी हालत में धनुष नही उठाऊँगा। तब श्री कृष्ण ने पांडवों के मन के भावों को समझ कर 701 श्लोकों में गीता का ज्ञान देकर उनके मन के भावो को बदल दिया और उनके अवचेतन मन में इस बात को फीड कर दिया की सामने वाले ये सभी लोग पापी हैं, जिनके द्वारा संसार में बहुत पाप बढ़ रहा हैं, और इन पापियों को मारने से तुम्हे पाप नही बल्कि धर्म की रक्षा करने का पुण्य मिलेगा। मित्रों पाँचो भाईयों के अवचेतन मन ने जब इस बात को माना कि इन सबको मारने से उन्हें पाप नही बल्कि धर्म की रक्षा का पुण्य मिलेगा, तब उन्होंने मन में इसी भाव से युद्ध कर सभी कौरवों और उनके सहयोगियों का नाश किया और मरणोपरांत उन्होंने स्वर्ग का सुख प्राप्त किया। मित्रों श्री कृष्ण योगी थे, वे मन के रहस्यों को जानते थे इसलिये गीता का ज्ञान देकर पांडवों के मन के भावों को बदल दिया। और अगर पांडवों के मन के भावों को नही बदला जाता तो उन्हें अपने मन के भावों के अनुसार नर्क का दुख भोगना पड़ता।

इसलिये मित्रों जो भी हैं वो ये मन हैं। भगवान् को मानने वाला भी ये मन हैं, अल्लाह को मानने वाला भी ये मन है, यीशु को मानने वाला भी ये मन है। मित्रों ईश्वर एक हैं, बस ये "मन" अपने अंदर जिस रूप और जिस नाम में अपने ईश्वर को देखता हैं वो ही उसका ईश्वर हो जाता हैं। इसलिये कबीरदास जी ने बड़ा अच्छा कहा हैं कि...

कबीरा कुआँ एक हैं, पणिहारी अनेक
न्यारे-न्यारे बर्तनों में, पाणी एक का एक।।

अर्थात पानी तो एक ही हैं, वो तो सभी की प्यास एक जैसी हीं बुझाता हैं, बस हम लोगों के बर्तन अलग-अलग हैं। पानी चाहे मुस्लिम के घर के बर्तन से पियो या हिन्दू के घर के बर्तन से, प्यास सभी की एक जैसी बुझती हैं।

तुलसीदास जी ने भी तुलसी रामायण में बड़ा अच्छा लिखा हैं कि.

घट में सूझे नहीं, लानत ऐसे जिंद
तुलसी ऐसे जिंद को, भयो मोतिया बिंद।।

अर्थात ईश्वर हमारे ही घट में यानी मन में बसा हैं, और जिन लोगों को मन में बसा ये परमात्मा नही दीखता वे लोग मोतिया बिंद के समान अन्धे हैं।

मित्रों शास्त्रों में पुराणों में बार-बार इसी बात पर जोर दिया गया हैं कि "मन" ही सर्वशक्तिशाली हैं। और इस शक्तिशाली मन का "ध्यान" जिस और हो जाता हैं, इसकी शक्तियाँ उसे पाकर रहती हैं। अब चाहे मन का ध्यान अच्छे-कर्मो की और हो या बुरे-कर्मो की और, उसे इस बात से कोई फर्क नही पड़ता। मन का ध्यान जिस और हैं वो उसे पाकर रहता हैं और उसका परिणाम अच्छा हो या बुरा, इसका फल तो कर्ता को भोगना पड़ता हैं।

मित्रों हमारा सफर Sixth Sense को समझने का हैं, पर आप सोच रहे होंगे में ये मन के ऊपर क्यों व्याख्या कर रहा हूँ। अरे भाई ये मन हीं तो हमारी छ्टी इंद्री हैं। हमारी पाँच इन्द्रियाँ आँख, कान, नाक, जीभ और त्वचा हैं, इन सभी से हमे संसार का ज्ञान होता हैं। और छटी इंद्री हैं ""मन"" जो इन सभी इन्द्रियों के ऊपर हैं। सभी इन्द्रियाँ मन के अंडर में काम करती हैं। मन के ऊपर हैं बुद्धि। बुद्धि के ऊपर हैं आत्मा। और आत्मा के ऊपर हैं परमात्मा।

यानी परमात्मा के अंडर में आत्मा,
आत्मा के अंडर में बुद्धि,
बुद्धि के अंडर में मन,
और मन के अंडर में इन्द्रियाँ।

तो क्रम के अनुसार
इन्द्रिय-मन-बुद्धि-आत्मा-परमात्मा

जैसे पाँच तत्व अग्नि, पृथ्वी, जल, वायु, आकाश से स्थूल शरीर बना हैं वैसे ही इस शरीर का संचालन करने वाले ये पाँच चरण हैं इन्द्रिय, मन, बुद्धि, आत्मा, परमात्मा।

तो इन्द्रियों के ऊपर अधिकार मन का हैं। बिना मन के ये इन्द्रियाँ कुछ नही कर सकती। और मन के ऊपर हैं बुद्धि। मन हर काम करने से पहले बुद्धि के पास जाता हैं, बुद्धि अपना निर्णय देती हैं। पर.....
मन चंचल हैं, ये काम, क्रोध, मद, मोह और लोभ जैसे विकारों में फसकर उस बुद्धि को नकार देता हैं जो आत्मा और आत्मा से ऊपर परमात्मा से जुडी हुई हैं।

मन शक्तिशाली हैं क्योंकि ये क्रमशः बुद्धि-आत्मा-परमात्मा से जुड़ा हैं, इसे परमात्मा से शक्ति यानी ऊर्जा मिलती हैं। अब मन का ध्यान जिस और होगा ऊर्जा का व्यय भी उसी और होगा। जैसे आपके घर में गैस का सिलेंडर हैं, अब आप उससे खाना बनाओ या घर को आग लगाओ सिलेंडर को कोई फर्क नही पड़ता, आप जो चाहो वो करो।

इस सन्दर्भ में अगले पार्ट में फिर चर्चा करेंगे।

मित्रों मैंने पिछले पार्ट में आपको कहा था कि अगला सफ़र रहस्यों से भरा होगा। हालाँकि मेरा पूरा प्रयास हैं कि में इस विषय को सरल शब्दों में आपके समक्ष प्रकट कर सकूँ। पर मित्रों ईश्वर द्वारा इस शरीर की जो प्रोग्रामिंग की गई हैं ना, वो बड़ी ही जटिल हैं। अभी तो बहुत कुछ जानना बाकी हैं। इसलिये जिनको रूचि हैं वो साथ चलते रहिये।

राधे-राधे...



Sixth Sense-16

Sixth Sense-16

मित्रों पिछले कुछ पार्ट में हमें कर्म-फल के सिद्धांत के बारे में समझा की कैसे भावों को बदलकर कर्मों के फलों को बदला जा सकता हैं, और दूसरा ये भी समझा की भाव और कर्म दोनों अच्छे होते हुए भी पाप का फल भोगना पड़ता हैं। मित्रों आगे में आपको पाप और पुन्य के निर्धारण के बारे में बताऊंगा की कोन हैं वो, जो हमारे पाप और पुन्य को डिसाईड करता है। पर उससे पहले आज हम मन पर कैसे कन्ट्रोल रखें, इस पर चर्चा करेंगे।

मित्रों आगे का सफर थोड़ा कठिन हैं, पर मेरा निरंतर यही प्रयास है की में सरल शब्दों में इसे आप तक पहुँचा पाऊँ।

मित्रों मन को एकाग्र(काबू) करने की बहुत सी विधियाँ शास्त्रों में बताई गई हैं। व्रत, नियम, प्राणायाम, योग, कुण्डलिनी साधना, ध्यान, धारणा इत्यादि बहुत से तरीके हैं।

जैसे कंप्यूटर में वायरस को रोकने के लिये अलग-अलग तरह के एंटी-वायरस होते हैं, और समय-समय लार उन्हें अपडेट भी किया जाता हैं, मित्रों वैसे ही मन में वायरस ना आ जाए इसके लिए भी अनेक एंटी-वायरस हैं। पर वो सब आज के जमाने में उपयोग में लाने कठिन है इसलिये मैंने समय के साथ उन्ही सिद्धांतो को आज की भाषा में अपडेट किया हैं।

मित्रों कंप्यूटर पर हम जैसे ही बाह्य जगत से जुड़ते हैं, यानी इंटरनेट का उपयोग करते ही वायरसों का हमला शुरू हो जाता हैं। और उनका सीधा हमला इन्टरनल मैमोरी की सिस्टम फाईलों पर होता है जिससे धीरे-धीरे कंप्यूटर की कार्यप्रणाली बाधित हो जाती हैं। वैसे ही जब हम बाह्य जगत के संपर्क में आते हैं तब हमारे जाग्रत मन पर ईच्छाओ, कामनाओं और विषय-वासनाओं रूपी वायरसों का हमला शुरू हो जाता हैं। यानी हमारा मन इन चीजों में भटकने लगता हैं। जिससे हमारा अवचेतन मन इन व्यर्थ के विषयों में अटक जाता हैं। फलस्वरूप हम हमारे लक्ष्य से भटक जाते हैं। एकाग्रता भंग हो जाती हैं।

अब कंप्यूटर में तो हम एंटी-वायरस लगाकर वायरस को रोक देते हैं। पर अब हम हमारे दैनिक जीवन में हम कैसे एंटी-वायरस को इंस्टोल करें, इसे समझते हैं।

मित्रों संसार में हर चीज का opposite हैं। बिना opposite के संसार की उत्पत्ति संभव नहीं। आगे-पीछे, ऊपर-निचे, सुख-दुःख, काला-सफ़ेद, वायरस-एंटी वायरस इत्यादि संसार में सभी चीजों के opposite हैं। और इनमे एक नियम है कि ये दोनों कभी एक दुसरे के साथ नही रह सकते, जहाँ एक होता है वहाँ दूसरा नही हो सकता। जब एक आता हैं तो दूसरा चला जाता हैं। जैसे सिक्के के दो पहलू दोनों आमने-सामने नही हो सकते जैसे एक स्कैल के दो हिस्से आगे और पीछे का ये दोनों एक साथ नही हो सकते जैसे सुख और दुःख दोनों एक साथ नहीं रह सकते वैसे हीं जब एंटी-वायरस कंप्यूटर में इंस्टाल हो तो वायरस नही आ सकता। यानी जब एक होता है तो दूसरा वहाँ आ नही सकता। इसलिये मित्रों अगर जीवन में दुःख आ जाए तो सुख को Download करो, दुःख भाग जाएगा।

बस मित्रों अब इसी नियम को ध्यान में रखकर हमें भी कामनाओं और वासनाओं रूपी वायरसों के लिए एंटी-वायरस हमारे मन रूपी कंप्यूटर ने फीड करना होगा।

मित्रों कंप्यूटर वायरस एक कमांड बेस प्रोग्राम होता हैं। जिसमे कंप्यूटर की सिस्टम फाईलों को नष्ट करने की कमांड दी होती हैं। वैसे ही एंटी-वायरस में वायरस के आते ही उनको नष्ट करने की कमांड दी होती हैं। बस अब हमें इन कामनाओं से होने वाली हानि को अवचेतन मन में फीड करना होगा। मित्रों अगर आपको आग्नि से जलने का ज्ञान होगा तो क्या आप आग्नि में हाथ डालेंगे ? वैसे ही मन के भटकने से क्या-क्या हानि होती है अगर इसका ज्ञान आपको हो जाय तो आप फिर इन कामनाओं और वासनाओं में नही भटकेंगे। ये वायरस सामने आते ही आप समझ जायेंगे और उन्हें अपने जीवन में आने नही देंगे।

मित्रों हालांकि मैंने पिछले भागों में उन सभी बातों को बताकर आपके विषय-वासनाओ के एंटी-वायरस को आपके अवचेतन-मन में फीड कर चुका हूँ। और यही कारण भी था इस रहस्योदघाटन में देरी का। क्योंकि में चाहता था की इस ज्ञान से पहले सारे एंटी-वायरस को आपके अवचेतन में फीड कर दूं। फिर भी मित्रों आपको समय-समय पर इसको अपडेट करते रहना होगा। और इसको अपडेट करने का एक ही जरिया हैं, और वो हैं

"सत्संग"।

मित्रों निरंतर सत्संग करने से हमारा विवेक जाग्रत रहता हैं और हमारा आत्मविश्वास मजबूत होता जाता हैं कि जीवन में हम जो यात्रा करेंगे वो कभी गलत नहीं होगी।

मित्रों आज का सफर बहुत कठिन था। पर जैसा की मैं हमेशा कहता हूँ कि ईश्वरीय रहस्यों को जानना हर किसी के बस की बात नहीं और यहाँ तक वे ही पहुँच पाये हैं, जिन्होंने अपने संयम को बनाए रखा। पर मित्रों सफ़र यही ख़त्म नही होता, मेरी नजर में तो यहाँ तक का सफर तो बहुत ही सामान्य था, पर आगे का सफर रहस्यों से भरा हुआ होगा। मित्रों मेरी खोज मात्र मानव तक खत्म नही होती हैं, मेरा लक्ष्य तो परमात्मा को पाना हैं।

मित्रों अतीत से भविष्य के सफर में आज आप कहाँ खड़े है अब इसका ज्ञान आपको हो गया होगा। पर आगे का सफ़र फिर भी जारी रहेगा।

राधे-राधे...