Sixth Sense-9
मित्रों Six sense के पिछले पार्ट में हमने यह समझा कि जैसे एक Convex लेंस सूर्य की किरणों को एक बिंदु पर केन्द्रित कर निचे रखे कागज को जला देता हैं, वैसे ही मन को एकाग्र कर शक्तिशाली बनाया जा सकता हैं।
मित्रों आरम्भ से लेकर अब तक हमने जो ज्ञान हासिल किया है वो सारा का सारा "मन" से सम्बंधित था, कि जो भी है, वो ये मन हैं, इस मन को काबू करके सब कुछ पाया जा सकता हैं। पर सत्य ये है मित्रों कि इस मन को काबू करना बड़ा ही कठिन हैं। मन पर कितना भी जोर लगाने के बावजूत भी यह विषय-वासनाओं में, इच्छाओं, अंधविश्वासों और अन्य किसी सांसारिक बातों अटक ही जाता हैं।
मित्रों जैसे ही आपके जाग्रत मन ने खुद को किसी बात में लगाया उसी समय आपका अवचेतन मन उसको एक कमांड समझकर अपना कार्य प्रारम्भ कर देता हैं। यह कार्य भी बिलकुल कंप्यूटर की तरह होता हैं। जैसे ही आपने कंप्यूटर की रनिंग मैमोरी के सर्च इंजन पर कमांड दी और कंप्यूटर अपनी इन्टरनल मैमोरी या इंटरनेट से उन तथ्यों को निकालने में लग जाता हैं। जैसे कंप्यूटर आपके शब्दों को एक कमांड समझ कर कार्य करता हैं वैसे हीं हमारा मन हमारी हर सोच को, हर विचार को, हर शब्द को एक कमांड समझता हैं। मित्रो हमारा अवचेतन मन किसी भी बात को मजाक में नहीं लेता।
मित्रों जैसे हीं आपने मन में ऐसा सोचा की इस मंदिर के गुल्लक में 500/- रु डालने हैं, बस जब तक आपके द्वारा उस टास्क को पूरा नही कर लेता तब तक वो उस पर कायम रहता हैं, उस कमांड को पूर्ण किये बिना वो हटता नही हैं। और अगर आपने वहाँ 500/- की जगह 100/- ही डाले तो आपका मन 400/- पर अटक जाएगा। आपने अंतर्मन में वो बात अटक जायेगी की मैंने 500/- डालने या चढाने का सोचा और 100/- ही डाले। बस ऐसे में बाबा कहते है की जाओ गुल्लक में पैसे डाल के आओ, कृपा अटक गई हैं। मित्रो कृपा नही मन अटका हैं। गुल्लक में पैसा न डालने से कृपा नहीं अटकती बल्कि आपके मन के विश्वास और आस्था के कारण कृपा अटक जाती हैं। क्योंकि ऐसी जगहों पर जब कोई भूल हो जाती हैं तब जाग्रत मन तो उसे भूल जाता हैं, पर कहीं न कहीं आपके अंतर्मन यानी अवचेतन मन में वो बात पड़ी रह जाती हैं।
इसलिये मित्रो इस मन को हमें भटकने से रोकना हैं। क्योंकि ये जो मान लेता हैं वो हम पर लागू हो जाता हैं। चाहे वो धर्म से सम्बन्धित बात हो चाहे किसी अंधविश्वास से सम्बंधित। जैसे ही माना बस वो लागू हो गया।
अब आप सोच रहे होंगे की जब मन हर बात को कमांड समझता हैं तो जब लोग करोडपति होने का सोचते हैं तो वो कमांड क्यों काम नही करती। मित्रो वो कमांड तो अपना काम करना शुरू हो जाती हैं पर जितनी बड़ी कमांड होती है उतना बड़ा कर्म भी तो होना चाहिये। हम करोडपति होने का सोच तो लेते हैं पर कर्म में आलस्य कर जाते हैं। बिना कर्म किये तो भाग्य भी नही फलता। और उल्टा ऐसा सोच कर आप फिर एक और टास्क पर अटक जाते हैं। और ऐसे में जब तक करोड़पती नहीं बन जाते तब तक दुखी रहते हैं। इसलिए वो ही बाते जाग्रत मन पर लाये जिन्हें आप पूरा कर सको। इसका कुछ अलग विज्ञान है जो अगले पार्टो में बताऊंगा।
दूसरा आपने धनवान बनने का तो सोच लिया पर क्या आपने जो कमांड दी है, क्या वो सही दी हैं। अक्सर हम कंप्यूटर पर जब कोई कमांड देते हैं तब हम उन चीजों को नहीं ढूंढ पाते जो हमें चाहिये। ये हमारे शब्दों के कारण होता हैं कि हमने शब्दों के रूप में जो कमांड दी है उसमे शब्दों का उपयोग सही नही हो पाया। और हमारा मन जो हर बात को कमांड समझता हैं वो उन्ही तथ्यों को बाहर निकालता हैं जो विचार या शब्द हमने सोचे हैं, यानी हमने किन शब्दों की कमांड दी हैं।
अब सोच और शब्द से ये फर्क कैसे पैदा हो गया इसे एक छोटी सी कहानी से समझाता हूँ।
मित्रों अजमल जी का नाम आपने सुना होगा(पीर रामदेव बाबा के पिताजी)। उनके कोई संतान नही थी। इस सिलसिले में वे एक व्यापारी के साथ द्वारकाधीश मंदिर जाते हैं। और रोज भगवान् के मंदिर जाकर उनसे संतान माँगते है, पर भगवान जवाब नही देते। तब एक दिन गुस्सा होकर प्रसाद में लाया हुआ लड्डू भगवान् को मार देते हैं। तब पुजारी इस बात से परेशान होकर उनको बोलता है की भगवान् मंदिर में थोड़ी है वो तो सागर में रहते हैं। यह सोचकर अजमल जी और व्यापारी दोनों सागर में कूद जाते हैं (स्वप्नावस्था में यानी अवचेतन अवस्था में)। निचे जाते है तो उन्हें द्वारकाधीश मिलते है जिनके छाती पर पट्टी बंधी होती हैं। तब अजमल जी पूछते है प्रभु ये क्या हुआ? तब भगवान् कहते है कि भाई किसी भक्त ने लड्डू मार दिया। तब अजमल जी कहते है प्रभु मुझे माफ़ करो वो भक्त में ही हूँ। तब भगवान पूछते है, बताओ कैसे आना हुआ। तब अजमल जी कहते है की प्रभु मेरे कोई संतान नही है, बस मुझे आप जैसी संतान चाहिये मुझे। तब भगवान कहते है कि जाओ में ही आऊंगा तुम्हारी संतान के रूप में। उसके बाद उस व्यापारी को पूछते है भाई तुझे क्या चाहिये। व्यापारी धन के अहंकार में कहता है कि प्रभु आपकी कृपा से सब कुछ है बस ""कोई खाने वाला नही हैं मेरे।"" भगवान् ने कहा जाओ तुम्हारे खाने वाला ही आयेगा। बस मित्रों इसी फलानुसार अजमल जी के यहाँ भगवान् द्वारकाधीश संतान के रूप में "रामदेव-अवतार" में आये और उस व्यापारी के यहाँ उस ""खाने-वाले"" भैरों राक्षस ने जन्म लिया जो रोज एक जने को मारकर खा जाता था।
मित्रों कहने का मतलब इतना हीं है कि भगवान् के मंदिर जाओ या मन के मंदिर में जाओ दोनों जगह सही कमांड यानी सही शब्दों का उपयोग करो।
मित्रों आज का विषय भी बहुत विस्तृत हो गया हैं जिसमे बहुत से तथ्य छूट गए हैं। इसलिए कल फिर फिर इस पर चर्चा करेंगे।
राधे-राधे...
मित्रों Six sense के पिछले पार्ट में हमने यह समझा कि जैसे एक Convex लेंस सूर्य की किरणों को एक बिंदु पर केन्द्रित कर निचे रखे कागज को जला देता हैं, वैसे ही मन को एकाग्र कर शक्तिशाली बनाया जा सकता हैं।
मित्रों आरम्भ से लेकर अब तक हमने जो ज्ञान हासिल किया है वो सारा का सारा "मन" से सम्बंधित था, कि जो भी है, वो ये मन हैं, इस मन को काबू करके सब कुछ पाया जा सकता हैं। पर सत्य ये है मित्रों कि इस मन को काबू करना बड़ा ही कठिन हैं। मन पर कितना भी जोर लगाने के बावजूत भी यह विषय-वासनाओं में, इच्छाओं, अंधविश्वासों और अन्य किसी सांसारिक बातों अटक ही जाता हैं।
मित्रों जैसे ही आपके जाग्रत मन ने खुद को किसी बात में लगाया उसी समय आपका अवचेतन मन उसको एक कमांड समझकर अपना कार्य प्रारम्भ कर देता हैं। यह कार्य भी बिलकुल कंप्यूटर की तरह होता हैं। जैसे ही आपने कंप्यूटर की रनिंग मैमोरी के सर्च इंजन पर कमांड दी और कंप्यूटर अपनी इन्टरनल मैमोरी या इंटरनेट से उन तथ्यों को निकालने में लग जाता हैं। जैसे कंप्यूटर आपके शब्दों को एक कमांड समझ कर कार्य करता हैं वैसे हीं हमारा मन हमारी हर सोच को, हर विचार को, हर शब्द को एक कमांड समझता हैं। मित्रो हमारा अवचेतन मन किसी भी बात को मजाक में नहीं लेता।
मित्रों जैसे हीं आपने मन में ऐसा सोचा की इस मंदिर के गुल्लक में 500/- रु डालने हैं, बस जब तक आपके द्वारा उस टास्क को पूरा नही कर लेता तब तक वो उस पर कायम रहता हैं, उस कमांड को पूर्ण किये बिना वो हटता नही हैं। और अगर आपने वहाँ 500/- की जगह 100/- ही डाले तो आपका मन 400/- पर अटक जाएगा। आपने अंतर्मन में वो बात अटक जायेगी की मैंने 500/- डालने या चढाने का सोचा और 100/- ही डाले। बस ऐसे में बाबा कहते है की जाओ गुल्लक में पैसे डाल के आओ, कृपा अटक गई हैं। मित्रो कृपा नही मन अटका हैं। गुल्लक में पैसा न डालने से कृपा नहीं अटकती बल्कि आपके मन के विश्वास और आस्था के कारण कृपा अटक जाती हैं। क्योंकि ऐसी जगहों पर जब कोई भूल हो जाती हैं तब जाग्रत मन तो उसे भूल जाता हैं, पर कहीं न कहीं आपके अंतर्मन यानी अवचेतन मन में वो बात पड़ी रह जाती हैं।
इसलिये मित्रो इस मन को हमें भटकने से रोकना हैं। क्योंकि ये जो मान लेता हैं वो हम पर लागू हो जाता हैं। चाहे वो धर्म से सम्बन्धित बात हो चाहे किसी अंधविश्वास से सम्बंधित। जैसे ही माना बस वो लागू हो गया।
अब आप सोच रहे होंगे की जब मन हर बात को कमांड समझता हैं तो जब लोग करोडपति होने का सोचते हैं तो वो कमांड क्यों काम नही करती। मित्रो वो कमांड तो अपना काम करना शुरू हो जाती हैं पर जितनी बड़ी कमांड होती है उतना बड़ा कर्म भी तो होना चाहिये। हम करोडपति होने का सोच तो लेते हैं पर कर्म में आलस्य कर जाते हैं। बिना कर्म किये तो भाग्य भी नही फलता। और उल्टा ऐसा सोच कर आप फिर एक और टास्क पर अटक जाते हैं। और ऐसे में जब तक करोड़पती नहीं बन जाते तब तक दुखी रहते हैं। इसलिए वो ही बाते जाग्रत मन पर लाये जिन्हें आप पूरा कर सको। इसका कुछ अलग विज्ञान है जो अगले पार्टो में बताऊंगा।
दूसरा आपने धनवान बनने का तो सोच लिया पर क्या आपने जो कमांड दी है, क्या वो सही दी हैं। अक्सर हम कंप्यूटर पर जब कोई कमांड देते हैं तब हम उन चीजों को नहीं ढूंढ पाते जो हमें चाहिये। ये हमारे शब्दों के कारण होता हैं कि हमने शब्दों के रूप में जो कमांड दी है उसमे शब्दों का उपयोग सही नही हो पाया। और हमारा मन जो हर बात को कमांड समझता हैं वो उन्ही तथ्यों को बाहर निकालता हैं जो विचार या शब्द हमने सोचे हैं, यानी हमने किन शब्दों की कमांड दी हैं।
अब सोच और शब्द से ये फर्क कैसे पैदा हो गया इसे एक छोटी सी कहानी से समझाता हूँ।
मित्रों अजमल जी का नाम आपने सुना होगा(पीर रामदेव बाबा के पिताजी)। उनके कोई संतान नही थी। इस सिलसिले में वे एक व्यापारी के साथ द्वारकाधीश मंदिर जाते हैं। और रोज भगवान् के मंदिर जाकर उनसे संतान माँगते है, पर भगवान जवाब नही देते। तब एक दिन गुस्सा होकर प्रसाद में लाया हुआ लड्डू भगवान् को मार देते हैं। तब पुजारी इस बात से परेशान होकर उनको बोलता है की भगवान् मंदिर में थोड़ी है वो तो सागर में रहते हैं। यह सोचकर अजमल जी और व्यापारी दोनों सागर में कूद जाते हैं (स्वप्नावस्था में यानी अवचेतन अवस्था में)। निचे जाते है तो उन्हें द्वारकाधीश मिलते है जिनके छाती पर पट्टी बंधी होती हैं। तब अजमल जी पूछते है प्रभु ये क्या हुआ? तब भगवान् कहते है कि भाई किसी भक्त ने लड्डू मार दिया। तब अजमल जी कहते है प्रभु मुझे माफ़ करो वो भक्त में ही हूँ। तब भगवान पूछते है, बताओ कैसे आना हुआ। तब अजमल जी कहते है की प्रभु मेरे कोई संतान नही है, बस मुझे आप जैसी संतान चाहिये मुझे। तब भगवान कहते है कि जाओ में ही आऊंगा तुम्हारी संतान के रूप में। उसके बाद उस व्यापारी को पूछते है भाई तुझे क्या चाहिये। व्यापारी धन के अहंकार में कहता है कि प्रभु आपकी कृपा से सब कुछ है बस ""कोई खाने वाला नही हैं मेरे।"" भगवान् ने कहा जाओ तुम्हारे खाने वाला ही आयेगा। बस मित्रों इसी फलानुसार अजमल जी के यहाँ भगवान् द्वारकाधीश संतान के रूप में "रामदेव-अवतार" में आये और उस व्यापारी के यहाँ उस ""खाने-वाले"" भैरों राक्षस ने जन्म लिया जो रोज एक जने को मारकर खा जाता था।
मित्रों कहने का मतलब इतना हीं है कि भगवान् के मंदिर जाओ या मन के मंदिर में जाओ दोनों जगह सही कमांड यानी सही शब्दों का उपयोग करो।
मित्रों आज का विषय भी बहुत विस्तृत हो गया हैं जिसमे बहुत से तथ्य छूट गए हैं। इसलिए कल फिर फिर इस पर चर्चा करेंगे।
राधे-राधे...