Sixth Sense-12
मित्रों Sixth Sense के पिछले पार्ट में हमने ये जाना की कैसे लोगों का सकारात्मक ध्यान अपनी और आकर्षित कर कैसे जीवन की ऊँचाइयों को छुआ जा सकता हैं।
मित्रों हमारे हिन्दू धर्म की सभी परम्पराओं इत्यादि के पीछे हमारे भावों के श्रेष्ठ बनाने और श्रेष्ठ जीवन जीने का ही प्रयोजन होता हैं। पूजा-पाठ, दान-धर्म और कथाओं इत्यादि से लगातार यही प्रयास होता हैं कि हमारे मन में अच्छे भावों की प्रोग्रामिंग हो। जिससे हमारे ध्यान की दिशा अच्छे कर्मो की और बने।
मित्रों ध्यान और भावों के इस विज्ञान को हमारे संत महापुरुषों ने काफी वर्षों पूर्व ही समझ लिया था। और वे ये भी जानते थे कि मानव इस विज्ञान को मान नही पायेगा, कि सारी शक्ति जो है, वो इस मन और इसके ध्यान की ही हैं। और इसे जैसे शब्दों की कमांड मिलती हैं उसका वैसा ही ध्यान उस और बन जाता हैं। उन्हें ये भी पता था की इंसान को यह तर्क समझाना बड़ा मुश्किल होगा और अगर इस विज्ञान को समझ भी गया तो इसका दुरुप्रयोग कर "रावण" जैसा भी बन सकता हैं। इसलिए मित्रों उन्होंने मूर्ती की रचना की ताकि उसमे हम भाव और ध्यान के साथ परमात्मा के स्वरूप को देख पाए। और मित्रों आश्चर्य की बात तो ये हैं की उन्होंने ऐसी-ऐसी स्तुतियें, आरतियों और प्रार्थनाओं की रचना की जिसमें वो सारी सकारात्मक कमांड डाल दी जिनके बोलने से उन शब्दों के द्वारा हमारा ध्यान सकारात्मक हो जाये। जैसे...
"सुख सम्पति घर आवे, कष्ट मिटे तन का"
"विषय विकार मिटाओ पाप हरो देवा"
"संकट कटे मिटे सब पीड़ा, जपत निरन्तर हनुमत बीरा"
"संकट ते हनुमान छूडावे, महावीर जब नाम सुनावे"
मित्रों आरती करते वक्त हम तो ये सोच कर आरती बोलते हैं की भगवान् को सुना रहे हैं, पर मित्रों सच तो ये हैं कि ये मूर्ती तो एक बहाना है, सुना तो हम हमारे मन को रहे होते हैं, भाव तो हमारे मन का पुष्ट कर रहे होते हैं। और राज की बात तो ये हैं कि इसी बहाने इन शब्दों के द्वारा हम हमारे अवचेतन मन को कमांड देकर ध्यान को दिशा भी दे देते हैं।
मित्रों प्रार्थना में बड़ी शक्ति होती है, ऐसा हम सुनते आये हैं। पर इन प्रार्थनाओं में शक्ति आई कहाँ से ? मित्रों इनमे भी उन्ही सकरात्मक शब्दों का इस्तेमाल किया जाता हैं जिसे हम सुनाते तो ईश्वर को हैं पर कमांड हमारे अवचेतन मन को जाती हैं, जिसके चलते सकारांमक भाव के साथ सकारात्मक "ध्यान" बनता हैं। और उस सकारात्मक ध्यान की वजह से एक "चुम्बकीय-शक्ति" पैदा होती हैं जिसे हम प्रार्थना की शक्ति कहते हैं।
मित्रों अक्सर लोग मंदिर जाते हैं और भगवान् को कहते हैं कि "हे भगवान में बहुत दुखी हूँ", इत्यादि-इत्यादि, मित्रों ऐसा बोल के इंसान सुखी नही बल्कि और दुखी हो जायेगा, क्योकि शब्दों का उपयोग सही नही हुआ। जैसा की मैंने पहले बताया की हमारा मन गूगल के सर्च इंजन जैसा हैं। आप जैसा कंप्यूटर के सर्च इंजन में टाईप करोगे वैसा परिणाम ही आपके सामने आयेगा, इसलिए मित्रों इस बात को अच्छे से समझ जाओ की हमें ईश्वर के सामने सही शब्दों का ही प्रयोग करना हैं। अच्छा ये होगा मित्रों कि आप भगवान् से ऐसा-वैसा कुछ न कहकर मात्र प्रार्थनाओं का सहारा लो, रोज सुबह भगवान् की आरती करो, जिससे अपने-आप उन सकारात्मक शब्दों का उच्चारण हो जायेगा जिसकी जरुरत हमारे अवचेतन मन को हैं।
इसके अलावा मित्रों हमारे ऋषि-मुनियों ने कथा-कहानियों की भी रचना की थी। और इसके पीछे भी यही लोजिक था कि कथा के शब्दों द्वारा मन के भावों को बदलकर व्यक्ति श्रेष्ठ परिणामों को पा सके। मित्रों आज तक हम सुनते आये हैं कि हमें कर्मों का फल मिलता हैं, पर गलत बात... हमें कर्मो का नहीं बल्कि भावों का फल मिलता है। कर्म तो मात्र एक साधन हैं फल तक पहुँचने का। इस सिद्धान्त को हम अगले पार्ट में समझेंगे।
मित्रों मन की शक्ति के और भी बहुत सारे रहस्य है। और आश्चर्य की बात ये हैं कि पाप और पुन्य को डिसाईड करने वाला भी ये मन ही हैं। पर मन को साधे बिना मन को काबू किये बिना इन रहस्यों को, शक्तियों को नही जाना जा सकता।
अब आप सोच रहे होंगे इतना पढ़ने के बाद कोई गहरी साधना करने से कोई शक्ति मिलेगी। नही मित्रों आपको ऐसा कुछ नही करना पड़ेगा हैं। आप इस ज्ञान को हासिल करते हुए यहाँ तक पहुँच गये, ये भी तो एक साधना ही हैं। साधना, मतलब एक चीज या किसी एक विषय में मन को साध लेना, उस विषय से मन को इधर-उधर भटकने नही देना ही साधना हैं। मित्रों ईश्वर पात्रता देखता हैं, और जो पात्र होता है वो ही ज्ञान के द्वारा उन शक्तियों के रहस्यों को जान पाते हैं। और आप तो इस ज्ञान के योग्य पात्र है, तभी तो यहाँ तक पहुँच पाए हैं। वरना जो पात्र नही होते हैं वे पढ़ते-पढ़ते या तो थक जाते हैं या तर्क-वितर्क में फँस जाते है।
इसलिये मित्रों आप स्वयं को इस ज्ञान का योग्य पात्र समझ कर साथ चलते रहिये, आत्म दर्शन अब आपसे दूर नही हैं।
राधे-राधे...
मित्रों Sixth Sense के पिछले पार्ट में हमने ये जाना की कैसे लोगों का सकारात्मक ध्यान अपनी और आकर्षित कर कैसे जीवन की ऊँचाइयों को छुआ जा सकता हैं।
मित्रों हमारे हिन्दू धर्म की सभी परम्पराओं इत्यादि के पीछे हमारे भावों के श्रेष्ठ बनाने और श्रेष्ठ जीवन जीने का ही प्रयोजन होता हैं। पूजा-पाठ, दान-धर्म और कथाओं इत्यादि से लगातार यही प्रयास होता हैं कि हमारे मन में अच्छे भावों की प्रोग्रामिंग हो। जिससे हमारे ध्यान की दिशा अच्छे कर्मो की और बने।
मित्रों ध्यान और भावों के इस विज्ञान को हमारे संत महापुरुषों ने काफी वर्षों पूर्व ही समझ लिया था। और वे ये भी जानते थे कि मानव इस विज्ञान को मान नही पायेगा, कि सारी शक्ति जो है, वो इस मन और इसके ध्यान की ही हैं। और इसे जैसे शब्दों की कमांड मिलती हैं उसका वैसा ही ध्यान उस और बन जाता हैं। उन्हें ये भी पता था की इंसान को यह तर्क समझाना बड़ा मुश्किल होगा और अगर इस विज्ञान को समझ भी गया तो इसका दुरुप्रयोग कर "रावण" जैसा भी बन सकता हैं। इसलिए मित्रों उन्होंने मूर्ती की रचना की ताकि उसमे हम भाव और ध्यान के साथ परमात्मा के स्वरूप को देख पाए। और मित्रों आश्चर्य की बात तो ये हैं की उन्होंने ऐसी-ऐसी स्तुतियें, आरतियों और प्रार्थनाओं की रचना की जिसमें वो सारी सकारात्मक कमांड डाल दी जिनके बोलने से उन शब्दों के द्वारा हमारा ध्यान सकारात्मक हो जाये। जैसे...
"सुख सम्पति घर आवे, कष्ट मिटे तन का"
"विषय विकार मिटाओ पाप हरो देवा"
"संकट कटे मिटे सब पीड़ा, जपत निरन्तर हनुमत बीरा"
"संकट ते हनुमान छूडावे, महावीर जब नाम सुनावे"
मित्रों आरती करते वक्त हम तो ये सोच कर आरती बोलते हैं की भगवान् को सुना रहे हैं, पर मित्रों सच तो ये हैं कि ये मूर्ती तो एक बहाना है, सुना तो हम हमारे मन को रहे होते हैं, भाव तो हमारे मन का पुष्ट कर रहे होते हैं। और राज की बात तो ये हैं कि इसी बहाने इन शब्दों के द्वारा हम हमारे अवचेतन मन को कमांड देकर ध्यान को दिशा भी दे देते हैं।
मित्रों प्रार्थना में बड़ी शक्ति होती है, ऐसा हम सुनते आये हैं। पर इन प्रार्थनाओं में शक्ति आई कहाँ से ? मित्रों इनमे भी उन्ही सकरात्मक शब्दों का इस्तेमाल किया जाता हैं जिसे हम सुनाते तो ईश्वर को हैं पर कमांड हमारे अवचेतन मन को जाती हैं, जिसके चलते सकारांमक भाव के साथ सकारात्मक "ध्यान" बनता हैं। और उस सकारात्मक ध्यान की वजह से एक "चुम्बकीय-शक्ति" पैदा होती हैं जिसे हम प्रार्थना की शक्ति कहते हैं।
मित्रों अक्सर लोग मंदिर जाते हैं और भगवान् को कहते हैं कि "हे भगवान में बहुत दुखी हूँ", इत्यादि-इत्यादि, मित्रों ऐसा बोल के इंसान सुखी नही बल्कि और दुखी हो जायेगा, क्योकि शब्दों का उपयोग सही नही हुआ। जैसा की मैंने पहले बताया की हमारा मन गूगल के सर्च इंजन जैसा हैं। आप जैसा कंप्यूटर के सर्च इंजन में टाईप करोगे वैसा परिणाम ही आपके सामने आयेगा, इसलिए मित्रों इस बात को अच्छे से समझ जाओ की हमें ईश्वर के सामने सही शब्दों का ही प्रयोग करना हैं। अच्छा ये होगा मित्रों कि आप भगवान् से ऐसा-वैसा कुछ न कहकर मात्र प्रार्थनाओं का सहारा लो, रोज सुबह भगवान् की आरती करो, जिससे अपने-आप उन सकारात्मक शब्दों का उच्चारण हो जायेगा जिसकी जरुरत हमारे अवचेतन मन को हैं।
इसके अलावा मित्रों हमारे ऋषि-मुनियों ने कथा-कहानियों की भी रचना की थी। और इसके पीछे भी यही लोजिक था कि कथा के शब्दों द्वारा मन के भावों को बदलकर व्यक्ति श्रेष्ठ परिणामों को पा सके। मित्रों आज तक हम सुनते आये हैं कि हमें कर्मों का फल मिलता हैं, पर गलत बात... हमें कर्मो का नहीं बल्कि भावों का फल मिलता है। कर्म तो मात्र एक साधन हैं फल तक पहुँचने का। इस सिद्धान्त को हम अगले पार्ट में समझेंगे।
मित्रों मन की शक्ति के और भी बहुत सारे रहस्य है। और आश्चर्य की बात ये हैं कि पाप और पुन्य को डिसाईड करने वाला भी ये मन ही हैं। पर मन को साधे बिना मन को काबू किये बिना इन रहस्यों को, शक्तियों को नही जाना जा सकता।
अब आप सोच रहे होंगे इतना पढ़ने के बाद कोई गहरी साधना करने से कोई शक्ति मिलेगी। नही मित्रों आपको ऐसा कुछ नही करना पड़ेगा हैं। आप इस ज्ञान को हासिल करते हुए यहाँ तक पहुँच गये, ये भी तो एक साधना ही हैं। साधना, मतलब एक चीज या किसी एक विषय में मन को साध लेना, उस विषय से मन को इधर-उधर भटकने नही देना ही साधना हैं। मित्रों ईश्वर पात्रता देखता हैं, और जो पात्र होता है वो ही ज्ञान के द्वारा उन शक्तियों के रहस्यों को जान पाते हैं। और आप तो इस ज्ञान के योग्य पात्र है, तभी तो यहाँ तक पहुँच पाए हैं। वरना जो पात्र नही होते हैं वे पढ़ते-पढ़ते या तो थक जाते हैं या तर्क-वितर्क में फँस जाते है।
इसलिये मित्रों आप स्वयं को इस ज्ञान का योग्य पात्र समझ कर साथ चलते रहिये, आत्म दर्शन अब आपसे दूर नही हैं।
राधे-राधे...