Sixth Sense-15
मित्रों पिछले पार्ट में हमने भावों के विज्ञान को समझा कि कैसे मन के भावों के साथ ध्यान की दिशा बदल कर हम कर्मो के फलों को अच्छा या बुरा कर सकते हैं।
तो इसका मतलब तो ये हुआ की अब हर कर्म का फल हमारे हाथ में हो गया ?
नहीं मित्रों, यहाँ कुछ संदेह अभी बाकी हैं। हालाँकि ये सत्य हैं कि हमे हमारे भावों के अनुसार ही कर्म का फल मिलता हैं, यानि फल का निर्धारण तो हमारे भाव पर ही संपन्न हो जाता हैं, कर्म तो मात्र एक माध्यम होता हैं फल तक पहुँचने का। परन्तु कुछ कर्मों का ऐसा भी सिद्धांत होता हैं जिनमें हमें लोगों के मन के ध्यान यानि उनके भावों का फल भी भोगना पड़ सकता हैं।
मित्रों इस सिद्धांत के अनुसार आपके भाव कितने भी शुद्ध क्यों ना हो, और भले ही आपने अच्छे भाव रखकर कर्म किया हो, पर इसके बावजूत भी आपको पाप का फल भोगना पड़ सकता हैं। तर्क ये हैं मित्रों कि आपने कोई कर्म बड़े ही सुन्दर भाव से किया हैं पर उसके बावजूत भी उस कर्म से किसी जीव की हानि हुई या किसी की आत्मा को दुःख पँहुचा हो, तो आपको उस आत्मा या जीव के दुखी होने के पाप का फल भोगना पड़ सकता हैं। क्योंकि उस जीव के ध्यान से जो नकारात्मक ऊर्जा निकली हैं उससे आपका आभामंडल खंडित हो जाता हैं।
आईये मित्रों एक कहानी से इस सिद्धांत को समझाता हूँ।
मित्रों एक समय की बात है। एक बार एक गरीब आदमी एक सेठ के पास जाता है और भोजन के लिए सहायता मांगता है। सेठ बहुत धर्मात्मा होता है और वो मन में अच्छे भाव रखकर उसे कुछ पैसे देकर उसकी सहायता करता हैं। मित्रों पैसे लेकर वो व्यक्ति भोजन करता है, और उसके पास कुछ पैसे बच जाते है जिससे वो शराब पी लेता है। शराब पीकर घर जाता है और अपनी पत्नी को मारता हैं। और इस कारण पत्नी दुखी होकर अपने दो बच्चो के साथ तालाब में कूद कर आत्म हत्या कर लेती है।
कुछ समय बाद उस सेठ की भी असाध्य रोग से मृत्यु हो जाती है। मरने के बाद सेठ जब ऊपर जाता है तब यमराज बोलते है कि इसको नरक में फेंक दो। सेठ यह सुनकर यमराज से कहता है कि भाई आपसे गलती हुई है, मैने तो कभी कोई पाप भी नही किया है, बल्कि जब भी कोई मेरे पास आया है मैंने उसकी हमेशा मदद ही की है। इसलिये मुझे एक बार भगवान् से मिला दो। तब यमराज उसे बोलते है कि हमारे यहाँ तो गलती की कोई गुंजाईस नही है, गलतिया तो तुम लोग ही करते हो। पर सेठ के बहुत कहने पर यमराज उसे भगवान् के समक्ष पेश करते है।
भगवान् के सामने जाकर सेठ बोलता है प्रभु मैने तो कभी कोई पाप नही किया, फिर भी मुझे नरक क्यों दिया जा रहा है? तब भगवान् उसे उस गरीब व्यक्ति को पैसे देने वाली बात बताते है कि उस व्यक्ति की पत्नी और दो बच्चो की जीव हत्या का कारण तू है। तू उसे पैसे न देता तो वो शराब पीकर अपनी पत्नी को दुःख नही देता। सेठ बोलता है प्रभु मेने तो एक गरीब को दान दिया है और शास्त्रों में भी दान देने की बात लिखी है।
तब भगवान् कहते हैं कि वत्स दान देने से पहले पात्र की योग्यता भी परखनी चाहिए की वो दान लेने के योग्य है या नहीं, या उसे किस प्रकार के दान की जरुरत है। तुमने धन देकर उसकी मदद क्यों की, तुम उसको भोजन भी करा सकते थे। और रही बात उसकी दरिद्रता की, तो उसे देना होता तो में ही दे देता, वो जिस योग्य था उतना मैने उसे दिया, पर जब मैने ही उसकी अयोग्यता के कारण उससे सब कुछ नही दिया तो तुम्हे उसे क्या जरुरत थी धन देने की, तुम उसे भोजन भी करवा सकते थे। इसलिये तुम्हारे ही दिये हुए धन-दान के कारण तीन जीव हत्याए हुई है। और इन तीन जीव हत्याओ के पाप का फल तो अब तुम्हे ही भुगतना पड़ेगा। मैंने माना कि तुमने जो दान दिया है वो श्रेष्ठ भावों को धरकर दिया हैं, परन्तु उन तीनों जीवों के मन से निकली हाय के कारण तुम्हे ये फल भोगना ही पड़ेगा।
मित्रों इस कहानी से तात्पर्य ये है कि भले ही आपका भाव कितना हीं शुद्ध क्यों न हो, पर आपके कर्म से किसी जीव का नाश हो रहा हो तो उसका फल आपको भोगना पड़ेगा।
मित्रों महाभारत में भीष्म पितामाह को भी ऐसे ही किसी कर्म के कारण बाणों की सय्या पर सोना पड़ा था। आइये इस कथा को भी आपको बताता हूँ।
मित्रों भीष्म पितामाह जब अपना शरीर छोड़ रहे थे तब उन्होंने श्री कृष्ण से पूछा, हे कृष्ण मैंने ऐसा कोनसा पाप किया जो मुझे इतने दिन शूल शैया पर लेटना पड़ा ? जबकि मैं अपने पिछले 70 जन्म तक देख चुका हूँ, उनमे मुझे ऐसा कोई कर्म नज़र नहीं आता जिस कारण ये गति हुई हैं।
तब श्री कृष्ण ने कहा पितामाह, आप अपना 71वां जन्म देखिये उस जन्म में आप एक राजा थे। और एक बार शिकार खेलने गये तब आपको मार्ग पर एक घायल सर्प पड़ा दिखा। आपने सर्प को मार्ग में पड़ा देखकर उस सर्प को बचाने हेतु अपने बाण से उठाकर झाड़ियों में फेंक दिया। पर वो सर्प एक काँटेदार झाड़ में जा गिरा और उसके पूरे शरीर मे उस झाड़ के काँटे चुभकर आर-पार हो गये जिस कारण वो सर्प तिल-तिल कर मर गया। बस पितामाह आपको उसी कर्म की गति के फल को आज भोगना पड़ रहा हैं।
मित्रों इस घटना से तात्पर्य ये हैं कि हमने भले ही अच्छे भाव रखकर भलाई का काम किया हो, पर अगर उसके बावजूत भी किसी का भला न होकर हानि हो जाये तो भी हमें उस पाप का फल जरुर मिलेगा।
मित्रों कर्म-फल के सिद्धांत का विषय तो बहुत विस्तृत हैं इसलिये इसके बाकी सिद्धांतो पर फिर कभी चर्चा करेंगे। पर अभी तक आपको जो ज्ञान मैंने बताया है उन सिद्धांतो के साथ जीवन जीना भी जरुरी हैं। पर विषय-वासनाओं से भरे इस संसार में हमारा मन भटके बिना नही रह सकता, और एक भटकता मन कभी भी सफल नही हो सकता। इसलिये अगले पार्ट में हम "मन को कैसे काबू में रखें" इस पर चर्चा करेंगे।
राधे-राधे...
मित्रों पिछले पार्ट में हमने भावों के विज्ञान को समझा कि कैसे मन के भावों के साथ ध्यान की दिशा बदल कर हम कर्मो के फलों को अच्छा या बुरा कर सकते हैं।
तो इसका मतलब तो ये हुआ की अब हर कर्म का फल हमारे हाथ में हो गया ?
नहीं मित्रों, यहाँ कुछ संदेह अभी बाकी हैं। हालाँकि ये सत्य हैं कि हमे हमारे भावों के अनुसार ही कर्म का फल मिलता हैं, यानि फल का निर्धारण तो हमारे भाव पर ही संपन्न हो जाता हैं, कर्म तो मात्र एक माध्यम होता हैं फल तक पहुँचने का। परन्तु कुछ कर्मों का ऐसा भी सिद्धांत होता हैं जिनमें हमें लोगों के मन के ध्यान यानि उनके भावों का फल भी भोगना पड़ सकता हैं।
मित्रों इस सिद्धांत के अनुसार आपके भाव कितने भी शुद्ध क्यों ना हो, और भले ही आपने अच्छे भाव रखकर कर्म किया हो, पर इसके बावजूत भी आपको पाप का फल भोगना पड़ सकता हैं। तर्क ये हैं मित्रों कि आपने कोई कर्म बड़े ही सुन्दर भाव से किया हैं पर उसके बावजूत भी उस कर्म से किसी जीव की हानि हुई या किसी की आत्मा को दुःख पँहुचा हो, तो आपको उस आत्मा या जीव के दुखी होने के पाप का फल भोगना पड़ सकता हैं। क्योंकि उस जीव के ध्यान से जो नकारात्मक ऊर्जा निकली हैं उससे आपका आभामंडल खंडित हो जाता हैं।
आईये मित्रों एक कहानी से इस सिद्धांत को समझाता हूँ।
मित्रों एक समय की बात है। एक बार एक गरीब आदमी एक सेठ के पास जाता है और भोजन के लिए सहायता मांगता है। सेठ बहुत धर्मात्मा होता है और वो मन में अच्छे भाव रखकर उसे कुछ पैसे देकर उसकी सहायता करता हैं। मित्रों पैसे लेकर वो व्यक्ति भोजन करता है, और उसके पास कुछ पैसे बच जाते है जिससे वो शराब पी लेता है। शराब पीकर घर जाता है और अपनी पत्नी को मारता हैं। और इस कारण पत्नी दुखी होकर अपने दो बच्चो के साथ तालाब में कूद कर आत्म हत्या कर लेती है।
कुछ समय बाद उस सेठ की भी असाध्य रोग से मृत्यु हो जाती है। मरने के बाद सेठ जब ऊपर जाता है तब यमराज बोलते है कि इसको नरक में फेंक दो। सेठ यह सुनकर यमराज से कहता है कि भाई आपसे गलती हुई है, मैने तो कभी कोई पाप भी नही किया है, बल्कि जब भी कोई मेरे पास आया है मैंने उसकी हमेशा मदद ही की है। इसलिये मुझे एक बार भगवान् से मिला दो। तब यमराज उसे बोलते है कि हमारे यहाँ तो गलती की कोई गुंजाईस नही है, गलतिया तो तुम लोग ही करते हो। पर सेठ के बहुत कहने पर यमराज उसे भगवान् के समक्ष पेश करते है।
भगवान् के सामने जाकर सेठ बोलता है प्रभु मैने तो कभी कोई पाप नही किया, फिर भी मुझे नरक क्यों दिया जा रहा है? तब भगवान् उसे उस गरीब व्यक्ति को पैसे देने वाली बात बताते है कि उस व्यक्ति की पत्नी और दो बच्चो की जीव हत्या का कारण तू है। तू उसे पैसे न देता तो वो शराब पीकर अपनी पत्नी को दुःख नही देता। सेठ बोलता है प्रभु मेने तो एक गरीब को दान दिया है और शास्त्रों में भी दान देने की बात लिखी है।
तब भगवान् कहते हैं कि वत्स दान देने से पहले पात्र की योग्यता भी परखनी चाहिए की वो दान लेने के योग्य है या नहीं, या उसे किस प्रकार के दान की जरुरत है। तुमने धन देकर उसकी मदद क्यों की, तुम उसको भोजन भी करा सकते थे। और रही बात उसकी दरिद्रता की, तो उसे देना होता तो में ही दे देता, वो जिस योग्य था उतना मैने उसे दिया, पर जब मैने ही उसकी अयोग्यता के कारण उससे सब कुछ नही दिया तो तुम्हे उसे क्या जरुरत थी धन देने की, तुम उसे भोजन भी करवा सकते थे। इसलिये तुम्हारे ही दिये हुए धन-दान के कारण तीन जीव हत्याए हुई है। और इन तीन जीव हत्याओ के पाप का फल तो अब तुम्हे ही भुगतना पड़ेगा। मैंने माना कि तुमने जो दान दिया है वो श्रेष्ठ भावों को धरकर दिया हैं, परन्तु उन तीनों जीवों के मन से निकली हाय के कारण तुम्हे ये फल भोगना ही पड़ेगा।
मित्रों इस कहानी से तात्पर्य ये है कि भले ही आपका भाव कितना हीं शुद्ध क्यों न हो, पर आपके कर्म से किसी जीव का नाश हो रहा हो तो उसका फल आपको भोगना पड़ेगा।
मित्रों महाभारत में भीष्म पितामाह को भी ऐसे ही किसी कर्म के कारण बाणों की सय्या पर सोना पड़ा था। आइये इस कथा को भी आपको बताता हूँ।
मित्रों भीष्म पितामाह जब अपना शरीर छोड़ रहे थे तब उन्होंने श्री कृष्ण से पूछा, हे कृष्ण मैंने ऐसा कोनसा पाप किया जो मुझे इतने दिन शूल शैया पर लेटना पड़ा ? जबकि मैं अपने पिछले 70 जन्म तक देख चुका हूँ, उनमे मुझे ऐसा कोई कर्म नज़र नहीं आता जिस कारण ये गति हुई हैं।
तब श्री कृष्ण ने कहा पितामाह, आप अपना 71वां जन्म देखिये उस जन्म में आप एक राजा थे। और एक बार शिकार खेलने गये तब आपको मार्ग पर एक घायल सर्प पड़ा दिखा। आपने सर्प को मार्ग में पड़ा देखकर उस सर्प को बचाने हेतु अपने बाण से उठाकर झाड़ियों में फेंक दिया। पर वो सर्प एक काँटेदार झाड़ में जा गिरा और उसके पूरे शरीर मे उस झाड़ के काँटे चुभकर आर-पार हो गये जिस कारण वो सर्प तिल-तिल कर मर गया। बस पितामाह आपको उसी कर्म की गति के फल को आज भोगना पड़ रहा हैं।
मित्रों इस घटना से तात्पर्य ये हैं कि हमने भले ही अच्छे भाव रखकर भलाई का काम किया हो, पर अगर उसके बावजूत भी किसी का भला न होकर हानि हो जाये तो भी हमें उस पाप का फल जरुर मिलेगा।
मित्रों कर्म-फल के सिद्धांत का विषय तो बहुत विस्तृत हैं इसलिये इसके बाकी सिद्धांतो पर फिर कभी चर्चा करेंगे। पर अभी तक आपको जो ज्ञान मैंने बताया है उन सिद्धांतो के साथ जीवन जीना भी जरुरी हैं। पर विषय-वासनाओं से भरे इस संसार में हमारा मन भटके बिना नही रह सकता, और एक भटकता मन कभी भी सफल नही हो सकता। इसलिये अगले पार्ट में हम "मन को कैसे काबू में रखें" इस पर चर्चा करेंगे।
राधे-राधे...